संस्मरण : मौन का संगीत थे दिनेश मिश्र;साहित्य कुंज, अक्टूबर 2023

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संस्मरण – एक वेवलेंथ पर . . .  – आरती स्मित;साहित्य कुंज 2023

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 ज़िंदगी जितनी ख़ूबसूरत है, उतनी ही रहस्यमयी भी। एक पल में से पूरी की पूरी गुज़रकर, देखते ही देखते उस अभेद्य दीवार के पार चली जाती है, जिसे भेदना हमारे वश में नहीं होता। अगला पल पकड़ से दूर-बहुत दूर होकर, हमारी रेतीली हथेली में यादों का गुच्छा पकड़ा जाता है और रीतते पलों  के बीच उमगकर आँखें खोल देता है वह अनमोल– वह स्नेहिल अबोध पल, जिसमें संवेदना और विचार के स्तर पर, एक वेबलेंथ पर खड़े होकर पूरी ज़िंदगी जी लेने की बात की थी उन्होंने। यह भी कहा था, “मैं तो मानता हूँ कि हर लेखक को थोड़ा-सा ‘मख़बूतलहवास’ होना ही चाहिए। इसके बिना तो वह लेखक हो ही नहीं सकता।”

       वे अक्सर मौन की अंतहीन यात्रा पर निकल जाते और रंग-ध्वनि -प्रकाश के रहस्य को भेदने की सामग्री साथ लेकर लौटते और फिर शब्द की नोंक पर ठोंक देते थे वे भाव, जिन्हें व्यक्त कर पाना हर एक के वश की बात न थी। विरल था बहुत कुछ, विरोधी गुणों का अद्भुत सम्मिश्रण! एक दिन यों ही कहा था उन्होंने ,   “मेरे लिए लिखना एक नशा न होता तो मैं उससे और वह मुझसे इस तरह चिपका न रहता। हाँ, देर से ही सही, उसे संभालने की कला सीखने में लगा हूँ। उम्र ज़रूर आड़े आ रही है पर मनोबल टूटा नहीं है और मैं उत्साह में उसे लाँघ जाने में टूट जाता हूँ, जानते हुए भी कि यह ‘निंदर’ की शरारत है। जब शरीर साथ नहीं देता तो उसे खरी-खोटी सुनाने लगता हूँ।”

    पचासी वर्ष, दस महीने दस दिन में युगों को समोने वाले ध्वनि-साधक, मौन के अन्वेषक, रंगों की अद्भुत छटा के पीछे के अँधेरे का संधान करने वाले विचारक और संवेदनशील शब्द-शिल्पी नरेंद्र मोहन के भीतर गहन चेतना और भावबोध के साथ बसता, खिलंदरी करता वह ‘मख़बूतलहवास’ निंदर आत्मकथा से निकलकर मेरे साथ ऐसा हो लिया कि नरेंद्र मोहन जी भी पूछते, “आजकल निंदर मुझे दिखता नहीं। तेरे पास तो नहीं?” फिर कहते, “तूने उसकी आदत बिगाड़ दी है। अब मेरे पास तो टिकता ही नहीं!”

   और मैं खूब-खूब हँसती, कहती, “आप आजकल उसकी परवाह नहीं करते, बस काम-काम-काम, इसलिए मेरे पास आ गया है। जाने को तैयार नहीं। भेजूँगी भी नहीं|” फिर हम दोनों ठठाकर हँसते, भूल जाते कि हम आमने-सामने नहीं, फोन पर हैं।

   जिस पल से होकर वे गुज़रे, विदेह हुए, वह पल आज भी वहीं ठिठका खड़ा है। बेचैनी के आलम में एक नहीं, कई बार उन पलों को पुकारा था उन्होंने, जिसे बूँद-बूँद  जिया था– सिर्फ़ निंदर बनकर ही नहीं, नरेंद्र मोहन बनकर भी।‘स्व’ से ‘पर’ तक का विमर्श, जिसमें समाज, साहित्य, देश, काल, परिस्थिति, अतीत, वर्तमान और भविष्य की मीमांसा होती।

   कई बार उन पलों को रेखांकित करना कठिन होता है, जिन्होंने हँसाया-रुलाया, फिर पैठ गए अतल में। अब, जब-तब झाँकते रहते हैं बाहर और इस आवाजाही में उमग ही आते हैं अनमोल पल स्मृतियों के- स्मृतियाँ भी कितनी शोख़! कितनी चंचल! ..और दीगर भी। बलज़ोरी करने वाली! जितना रोको, उतना ही सेंध लगाती हैं और सोते-जागते, उठते-बैठते,खाते-पीते, यहाँ तक कि नितांत एकांत पलों में भी घुसपैठ कर, मन को तार-तार कर देती हैं; लाख चाहो,कोशिश करो मगर न जी न, उबरने नहीं देतीं तो नहीं देतीं। व्यक्त-अव्यक्त, मौखिक-लिखित, अकथ,सांकेतिक भावों के स्पर्श से नित नवीन क्षण बुनती परिस्थितियाँ कब कालचक्र का हिस्सा बनकर जीवंत आचार-व्यवहार, भाव-विचार को स्मृति के चोरबटुए में रख देती हैं, समझ ही नहीं आता ! और जब तक समझ बनती है, स्मृतियों से भरा चोर बटुआ ख़ज़ाने में तब्दील हो चुका होता है। ये स्मृतियाँ प्रतिपल साथ-साथ विचरती हैं, क़दम-दर-क़दम| उबरने की राह नहीं मिलती, तभी गूँजती है चिर-परिचित आवाज़…

    “विरेचन के लिए ज़रूरी है लिखना। लिखो-लिखो–लिखो! प्रसंग के रूप में लिखो, संस्मरण लिखो|आरती! तुम कविता के लिए बनी हो! कविता ही मुफ़ीद है तुम्हारे लिए। उसके बिना राह नहीं है। लिखो!… क्यों छोड़ दिया लिखना? जब तक लिखोगी नहीं, उबरोगी नहीं।  हर याद, हर बात को काग़ज़ पर उतारो। रफ़ करती जाओ टुकड़े-टुकड़े में।एक बड़ी रचना बन जाएगी|” कहा था उन्होंने, दो वर्ष पूर्व जब पिता को खोकर, उनके जैसे जीवट को असहाय अवस्था में कष्ट भोगते और उनके अकथ जीवन-दर्शन को समझकर अवसादित मुद्रा में अपने ठाँव लौटी थी|वे फोन पर लगातार समझाते रहे थे। कभी अभिभावक तो कभी अंतरंग सखा बनकर। वे ध्वनियाँ एक बार फिर औषधि में परिणत हो रहीं।

    पीछे मुड़कर देखती हूँ तो  ख़ुद को बरस-दर-बरस  पीछे  पाती हूँ… अगस्त 2018 के उन पलों में,  जिन्होंने स्मृति का दरवाज़ा खटखटाया था। दरवाज़ा खोला सुमन दी ने और सामने कुरते-पैंट में,अपने कमरे में मुस्कुराते खड़े नज़र आए थे  डॉ. नरेंद्र मोहन!पहली बार उनके आवास पर जाना हुआ था| संकोच की गिरफ़्त में थी, मगर उनकी अनुभवी आँखों ने समझ लिया और अपने सहज व्यवहार से आधे घंटे के भीतर संकोच की वह दीवार ढहा दी, फिर तो सुमन दी के हाथ की चाय के साथ समृद्ध संवाद का दौर घंटों चला। जीवन,मानसिक उद्वेलन, विभाजन के हालात और उनसे उपजी व्यथा की ज़मीन पर हुई उनकी अद्भुत रचनाओं पर खुला संवाद। उस समय, कहे उनके शब्द आज भी वायुमंडल में तैर रहे हैं –

    “जब आप सच जानते हैं तो कहे बिना नहीं रह सकते। दूसरा यह कि सच कहने का आपमें कितना साहस है! साहस ज़ोखिम उठाने का। अगर लेखक में यह साहस नहीं है, तब उसका लेखन भी कुछ नहीं है। एक तो है– सच्चा खरा नंगा सच लिखना। और लिखने के बाद आप चुप हैं। अब सच देख लिया तो कहोगे ही, मरे हुए हो क्या? शेयर तो करोगे। आज हम शेयर करते हुए भी डरते हैं। समझ में नहीं आता कि किन पर भरोसा करें? ऐसे में मैं कहता हूँ कि कुछ मख़बूतलहवास लोगों का बचा रहना ज़रूरी है जो खुलकर अपनी बात कह सकें। मंटो भी पागल थे। मख़बूतलहवास! वो बना रहना चाहिए। आदमी में इतना साहस ज़रूरी है। आदमी चुप क्यों है?…लालच या  भय से?…भय, कम्फ़र्ट ज़ोन से निकलकर ख़तरे उठाने का? मगर ये रिस्क तो उठाना पड़ेगा। लेखक को तो उठाना ही पड़ेगा। कोई मतलब नहीं, फिर भी आदमी चुप रहता है। कितना कैलकुलेटिव! कितना हिसाबी-किताबी!”

    वर्तमान के बिगड़ते हालात की पीड़ा उनके संवेदनशील, मगर विचारक लेखक मन को नवसृजन के लिए उद्वेलित करने लगी थी। मैं  पहले भी उनकी आत्मकथा का एक बड़ा हिस्सा पढ़ चुकी थी, कुछ एक नाटक और कविताएँ भी। इस मुलाक़ात ने सहज संवाद के माध्यम से सोच को एक दिशा दी। विस्मित थी कि इतना बड़ा व्यक्तित्व और कितना सहज! कितना नेकदिल, कितना सरल और नेह से सरोबार! इस मुलाक़ात के बाद फोन पर संवाद का सिलसिला शुरू हो गया। निंदर आत्मकथा से निकल कर मेरे साथ भाव लोक में विचरने लगा था। निंदर यानी दस वर्ष का वह साहसी और संवेदनशील बालक जिसने विभाजन की त्रासदी बहुत गहरे तक झेली, जो मास्टर युसूफ़, सखा आसिफ़ को कभी नहीं भूल पाया। बालसखी नन्हो को भी नहीं। निंदर के साहस ने ही मुझसे बाल कहानी ‘नई तरक़ीब’ लिखवा ली जो ‘हिंदी चेतना’ में बाल दिवस के अवसर पर प्रकाशित हुई। नरेंद्र मोहन सर को यह सरप्राइज़ गिफ़्ट दिया था और वे बेहद ख़ुश हुए। अपने बचपन को मूर्त रूप में पाकर भला कौन  ख़ुश  नहीं होगा!

    नन्हें सुकोमल पलों ने स्मृति की पोटली में उनके कहे शब्दों को ही नहीं, भावों-विचारों को भी गुपचुप सहेज लिया था। संवाद के लगभग एक सप्ताह बाद उन्हें संवाद का लिखित रूप दिखाने के लिए मेरा जाना हुआ। मैंने डॉ. हरीश नवल से भी नरेंद्र मोहन जी के आवास पर आने का आग्रह किया था। हमने थोड़ी- बहुत बातचीत की| नवल सर ने प्यारी-सी सेल्फ़ी ली और बैठक में सुमन दी के पास चले गए, मैं मौन बैठी रही| नरेंद्र सर मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो, सिर झुकाकर  पढ़ने और संशोधन करने में लग गए।  मैं देख रही थी कि उन्हें इस तरह गरदन झुकाकर पढ़ने में दिक्कत हो रही है| थोड़ी देर बाद मैंने टोका,

“सर, आप अपने स्टडी टेबल की तरफ मुड़कर आराम से करेक्शन कर लें|”

 “वैसे में तुम्हारी तरफ़ पीठ हो जाएगी न! यह सलीका थोड़ी न है कि किसी की तरफ़ पीठ करके बैठ जाओ|”

     सर ने मुस्कुराकर ज़वाब दिया और देर तक वैसे ही पढ़ते-संशोधित करते रहे| अंतत: मैं ही सुमन दी के पास बैठने का बहाना करके उठ खड़ी हुई, तब कहीं जाकर उन्होंने अपनी कुरसी स्टडी टेबल की तरफ़ मोड़ी| यह छोटी-सी बात मेरे लिए सबक बन गई| हर हाल में औरों को सम्मान देने का भाव उनके भीतर कितना गहरा था, यह बाद की मुलाकातों में स्पष्ट होता गया|

 संशोधन  के बाद जब सर ने संवाद की प्रति मुझे लौटाई तो संशोधन बहुत अधिक थे। ये संशोधन वर्तनी संबंधी नहीं, संवाद संबंधी थे। मुझे हैरानी हुई, तब नवल सर ने बताया कि “वे अपनी कही या लिखी बातों को इसी तरह संशोधित करते हैं। देखो, उन्होंने तुम्हारी जिज्ञासा या संवाद-शैली पर पेंसिल नहीं चलाई है।” उस घड़ी अनायास मेरे मुँह से निकला,‘मिस्टर परफ़ेक्शन’। नरेंद्र सर अपने हर काम को इतनी तल्लीनता, सुघड़ता और कलात्मकता से  करते कि रचना में नववधू- सा निखार आना स्वाभाविक ही था|  उस दिन उनकी कार्यशैली की मुरीद हो गई|

   एक अखंड सत्य जाना-समझा कि आत्मीय संबंध भौतिक या मूर्त मुलाक़ातों के मोहताज नहीं होते| नरेंद्र मोहन जी से मुलाक़ात गिनूँ तो औपचारिक मुलाक़ात 5-6 और अनौपचारिक 3 या 4, मगर कितनी लंबी ज़िंदगी जी ली! कितना कुछ पा लिया! सोचकर हैरान हूँ। फोन पर हम ज़्यादा खुले थे, इसका श्रेय भी उन्हें ही जाता है। वे सामने वाले पात्र के अनुरूप इस क़दर ढल जाते कि आपको एहसास भी न हो। 2019 के आरंभिक महीनों में सर पत्रों को संग्रह का रूप दे रहे थे। उनके स्नेहिल प्रस्ताव पर पत्र लिखा। पत्र क्या था, निंदर से जुड़ी मेरी संवेदना ने पत्र का रूप ले लिया और वह पत्र सर के अंतस् को छू गया। उन्होंने फोन कर, मुक्त कंठ से प्रशंसा तो की ही, जो कहा, वह उनके भाव-व्यवहार में सदैव नैसर्गिक रूप में दिखता रहा— “तुम इस घर का हिस्सा बन चुकी हो| जैसी सुमन, वैसी तुम!” कुछ दिनों बाद फिर किसी प्रसंग में कहा था, “तुम इस घर-परिवार तो हिस्सा हो ही, मेरे जीवन का भी हिस्सा बन गई हो|”  उन्होंने जो कहा, जितना कहा, उससे कहीं अधिक निबाहा|  सुमन दी ने भी हर बार स्नेह का गागर उड़ेला, जिसे शब्दांकित करना कठिन है|  

     निंदर को सर ने ही मूर्त किया, जब पिता को खोकर बदहवास-सी लौटी थी। उनकी असहाय अवस्था दृश्य बनकर नाचती और मैं टूटन की ओर बढ़ती जा रही थी। सभी अपनों ने आश्वासन दिए, मगर सर ने वरिष्ठ की भूमिका रखते हुए भी मेरे सामने खिलंदर निंदर को खड़ा कर दिया। फोन पर  मुझसे रोज़ बातें करना, बाबा से जुड़ी बातें सुनना, उसे लिखने के लिए प्रेरित करना और साथ ही मुझे हँसाने के नए-नए तरीक़े अमल में लाना उनकी दिनचर्या बन गई थी। अंतरंग मित्र ही कर सकता है ऐसा। अपनी तमाम व्यस्तता के बावज़ूद किसी को अवसाद के गहरे कुएँ से निकालने का काम इतना सरल नहीं, वह भी तब जब मिलना न हो, सिर्फ़ फोन के सहारे… मगर उन्होंने कर दिखाया क्योंकि उनके बात-व्यवहार में कहीं भी, कुछ भी बनावटी न था, जो था सहज-स्वाभाविक। सर के भीतर के साहसी, संकल्पी मगर अबोध बालक निंदर से तब अधिक खुलकर मुलाक़ात हुई और होती रही। उनके सहज,आत्मीय स्नेह,उनकी प्रेरणा-उत्प्रेरणा का चमत्कार हुआ तो मेरे भीतर सूखी कविता की नदी फिर  जलमग्न होने लगी और कविताएँ स्वत:स्फूर्त्त हो, एक के बाद एक प्रकट होने लगीं; वाट्सएप्प के माध्यम से उन तक पहुँचने लगीं | वे इतने पर भी कहाँ रुकने वाले थे, मेरी हर एक रचना पर अपनी प्रतिक्रिया देते, चाहे वह लेखन के रूप में हो या यदा-कदा खींची गईं आड़ी-तिरछी रेखाओं के रूप में। वे मेरे पहले पाठक, पहले सलाहकार बने तो बने ही रहे।  

    अहा! कितने सुंदर पल! 30 जुलाई वर्ष 2019! अवसर सर के जन्मदिन का। सर ने किसी और को नहीं बुलाया था। सुमन दी और ऋत्विक के साथ बेहद अनमोल क्षण बिताए हमने। उन पलों को समेट लेने के लिए जो तस्वीरें लीं वे सचमुच मेरे ख़ज़ाने का हिस्सा हो गईं। मुझे याद है, विश्व के कोने-कोने से सर को लगातार फोन आते रहे थे और वे हर फोन को रिसीव कर रहे थे। मैं महसूस कर रही थी उनका विश्व-परिवार, जिन्हें उन्होंने अपने निश्छल नेह की डोर से बाँध रखा था। यह बानगी-मात्र  है हर एक के प्रति उनके अतुल स्नेह की। मेरी वापसी के समय उन्होंने सद्य:प्रकाशित कविता संग्रह ‘जितना बचा है मेरा होना’ भेंट दी और कहा, “इस पर कुछ लिखना|”

“आपकी किताब पर लिखना आसान है?”

“तुम जीती हो रचनाओं को, इसलिए कह रहा।”

    सच ही तो कहा था उन्होंने क्योंकि इस संग्रह ने कवर पेज और अपनी चौरासी कविताओं के गूढ़ अर्थों में ऐसा लपेटा कि एक नहीं, दो नहीं, तीन बार पढ़ गई, मगर लिखने बैठूँ तो कलम साथ न दे। इस संग्रह की हर कविता ने जाने कितने तहों में, कितने ही अर्थ समेटे हैं। हर बार नया अर्थ खुल जाता। एक वर्ष लग गया लिखने में,फिर एक नहीं, दो तरीक़ों से लिखी गई, मगर अब भी नहीं कह सकती कि आलोचना ने हर कविता को पूरी तरह खुलने का स्पेस दिया है। उन पर लिखी जितनी आलोचनाएँ पढ़ीं, सब अधूरी लगीं और यही बात जब उन्हें बताती तो वे मुस्कुराते, कहते “यही तो रचना की सफलता है।”

    आत्मकथा के दोनों खंड, डायरी के दोनों खंड, कविताएँ, नाटक– कितना कुछ पढ़ गई, जज़्ब कर लिया, मगर उन पर लिखने के समय शब्द हमेशा कम पड़े या सही शब्द मिले ही नहीं। ‘कमबख़्त निंदर’ ने मुझसे बाल कहानी लिखवा ली तो ‘जितना बचा है मेरा होना’ ने प्रतिक्रियास्वरूप कई कविताएँ|यह स्वत: हुआ। किसी रचनाकार की रचनात्मक सफलता इससे बड़ी क्या हो सकती है कि कोई पाठक (रचनाकार) उनकी कृति की समीक्षा, आलोचना के साथ ही कई कविताएँ प्रतिक्रियास्वरूप  सौंपे। और यह सब एक कृति पर एक के द्वारा किया जाए। जब मैं कहती, “मुझसे बड़ा प्रशंसक कौन?”

वे कहते “कोई नहीं! तुम तो जीती हो, तभी इतने फ़ॉर्म में लिख पाती हो। अभी क्या– अभी तो तुम्हें बहुत लिखना है।”

   6 अक्टूबर 2019 के वो यादगार पल! एक-दो मुलाक़ात के बाद कभी नहीं लगा किसी बड़े साहित्यकार से मिलने जा रही हूँ| सर के सहज-सरल व्यवहार ने मेरे मन से इस झिझक को धीरे-धीरे मिटाने में सफलता पा ली थी। नई पीढ़ी से मित्रवत व्यवहार कर, झिझक की गाँठें खोल देना सर की अद्भुत विशेषता थी। उस दिन, सुमन दी कहीं काम से बाहर थीं तो मेरे मना करने के बावज़ूद उन्होंने मेरे लिए जिस स्नेह से अदरक वाली चाय बनाई और ऋत्विक से स्नैक्स निकालने को कहा| मैं भाव-विह्वल थी | ऋत्विक इतना प्यारा बेटा है कि हर बार उसके साथ भी कुछ मीठे पल गुज़र ही जाते| मीठे पलों को कैमरे में कैद करने मैं अक्सर ऋत्विक की ही मदद लेती थी| | सर की सरलता-सहजता में उनके औदार्य की विराटता छिपी थी| उस दिन उन्होंने मेरे  पिता से संबद्ध ढेर सारी बातें कीं और फिर ढेर सारी कविताएँ सुनीं, सुनने के क्रम में प्रतिक्रियाएँ भी देते जा रहे थे और मन ही मन गुनते जा रहे थे कि  मेरी अगली किताब में कौन-सी रचना जाने योग्य है। सृजन के संदर्भ में उनके कहे शब्द आज भी राह दिखाते हैं– “सृजन जो है, वह बड़ी रेंज पर किसी संवेदना को या किसी एहसास को बचा देने की किसी भी कला की बहुत बड़ी सफलता हैं और अलग-अलग रूपों में– कहीं पेंटिंग में, कहीं संगीत में, कहीं चित्रों में– मगर आपके पास अभिव्यक्ति की क्षमता होनी चाहिए। अभिव्यक्ति के शब्द होने चाहिए। सृजन के माध्यम से एक बड़ी रेंज मिल सकती है।”

   सर से किसी भी विषय पर– निजी, पारिवारिक, सामाजिक / राष्ट्रीय/ अन्तर्राष्ट्रीय या साहित्यिक– सब पर खुलकर बात होती। उनसे हुआ सहज संवाद अक्सर कोई गूढ़ सीख दे जाता जिस पर बाद के क्षणों में घंटों मनन होता। एक बार मैंने पूछा था, “दर्द की चीख़ और चीख़ों में दर्द को आपने जितनी सूक्ष्मता से आत्मसात् कर लिया है और जिसका स्पष्ट प्रभाव आपके लेखन पर दिखता है, क्या  कभी उससे उबरने की कोशिश नहीं की?”

उसी क्षण उनका ज़वाब था– “दर्द की अनुगूँजें हैं अब भी, क्योंकि दर्द की पीड़ा के संदर्भ व्यक्तिगत नहीं होते, वे सामाजिक भी होते हैं, राजनीतिक भी होते हैं। वे हमारे सामने घटित होते हैं। सामाजिक, राजनीतिक पीड़ा/ त्रासदी गाहे-ब-गाहे सामने आती हैं, विभिन्न परिस्थितियों में घेरती हैं। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता जाता है, नई परिस्थितियाँ/नई त्रासदियाँ घटित होती हैं। आज भी जब कहीं दंगा होता है, मुझे वो घटनाएँ याद आ जाती हैं। वो दंगों की एक कड़ियाँ हैं जो लगातार चलती आ रही हैं। हमारे देश में वो दंगों की दहशत हो और विस्थापन का दर्द हो। विस्थापन के भी अलग-अलग रूप हैं। ऐसा बार-बार होता रहा और व्यथित होता है मन। दर्द की पीड़ा और त्रासदी बहुत व्यापक रूप में बयान करती है और व्यक्तिगत पीड़ा के घेरों को तोड़ती हुई उसका एक व्यापक सामाजिक आकार बनता जाता है और वह वही है– कभी चीख़ के रूप में, कभी किसी और रूप में|”  

  अपनी व्यस्तता के बावजूद आत्मीय संबंधों की, अभिभावक की तरह चिंता करना और प्रत्यक्ष में मैत्री भाव से मिलना उनका स्वभाव था। नेह की उनकी व्याप्ति मानव-मात्र तक ही सीमित नहीं थी, प्रकृति के कण-कण से प्रेम करते हुए वे इससे इतर अध्यात्म की सीढ़ी चढ़ने लगे थे। ‘जीवन और मरण आनंदमय हो जाता है जब प्रेम को उसके विराट रूप में देखा जाए’| ऐसे भाव उनके भीतर मौन की निःशब्दता से होते हुए, स्तब्धता की परिधि छूते हुए  बाद के दिनों में काग़ज़ पर कविता का रूप लेने लगे थे।

    6 नवम्बर 2019 को फिर उनके आवास पर जाना हुआ। संभवत: उनके स्नेहिल आदेश का पालन करती हुई, उनकी पसंदीदा अपनी कविताएँ प्रिंट कराकर उसी दिन ले गई थी। उस दिन, तमाम बातचीत के बीच उनसे उनकी ज़ुबानी लंबी कविता ‘बहना बाई’ सुनना उस मुलाक़ात का सुंदर उपहार था। यों बीच-बीच में वे फोन पर भी अपनी कविताएँ सुनाते या भेजते, किंतु सामने बैठकर, उनके स्वर में सुनने का आनंद ही कुछ और होता| बाद के दिनों में अपनी नई रचना के संदर्भ में बड़ी सरलता से पूछते, “कैसी लगी?— अच्छी नहीं लगी।“ यह उनके हृदय की विशालता ही थी। फलदार वृक्ष के नमनशील होने की बानगी सर के व्यक्तित्व में सार्थकता  पाती है। प्रतिभाओं को पाकर उसे उभारने का अनकहा प्रयास, मुझ जैसी दो पीढ़ी बाद के लेखक/लेखिकाओं को यह कहना कि

 “साहित्यकार कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। वह उम्र से नहीं, लेखन से छोटा या बड़ा होता है।  मैं तुम्हें भावनात्मक और वैचारिक स्तर पर एक वेवलेंथ पर पाता हूँ| तुमसे खुलकर बहस(विमर्श) की जा सकती है।” ऐसा कहकर निश्चित तौर पर वे मुझ जैसे परवर्ती रचनाकारों का आत्मविश्वास तो बढ़ाते ही थे, उन्हें उनके भीतर छिपी प्रतिभा और योग्यता का भी भान कराते थे। मुझे याद है, कई शिक्षण संस्थानों की भीतरी राजनीति से मेरा मन व्यग्र था, तब फोन पर उन्होंने बुद्ध के शब्द सौंपे थे– ‘अप्पदीपो भव’। और उनके कहे पर मनन करती हुई मैं उस मन:स्थिति से उबर गई थी। उनके कहे सहज वाक्य कई बार मेरे लिए सूक्ति वाक्य हो जाते और उन कथनों पर विचार करना स्वयं को विकास-मार्ग पर ले जाने जैसी अनुभूति देता।  कविता की सूक्ष्मता को देखने-परखने, उसकी गहराई में उतरने की मेरी  समझ विकसित हुई है तो सर की  कविताओं से और कविताओं के संदर्भ में उनसे संवाद करके।

    उसी माह, सप्ताह भी न बीता होगा कि सर का फोन आया। “मैंने कविताएँ देख ली हैं, मार्क भी कर दिया है। आ जाओ तो उस पर विस्तार से बात हो।” मैं हैरान! सर उन दिनों अपने लेखन-कार्य में व्यस्त थे, बावजूद इसके इतनी जल्दी! बहरहाल, जब गई और उन्होंने मेरी स्क्रिप्ट सामने रख दी, बोले,”देखो पलटकर…” वास्तव में अवाक् होने की बारी अब थी। सर ने हर एक कविता को कितनी तल्लीनता से पढ़ा, उस पर मनन किया, इसका प्रमाण पेंसिल से खींची गईं वे लकीरें, वे शब्द और वे वर्गीकृत उपशीर्षक दे रहे थे। इतना ही नहीं, किस उपशीर्षक के भीतर कौन-सी कविता जाएगी, किस उपशीर्षक या खंड के भीतर कम कविताएँ हैं, किसके भीतर अधिक, वे कविताएँ जो बेहतर हैं मगर इन खंडों में नहीं रखी जा सकतीं आदि-आदि बातें स्पष्टतया मुखरित थीं। फिर उन्होंने कई निर्देश देते हुए कहा,

“बस अब फ़ाइनल करो, तुम्हारी किताब अगले वर्ष आ जानी चाहिए। तुम्हारे पास अब भी इतनी अच्छी कविताएँ हैं कि एक और किताब बन जाए, मगर पहले यह…|”    

    उस क्षण, सर की उदात्तता को नाप पाना कठिन था मेरे लिए। कुछ क्षण वैसे ही उन पन्नों को पलटती रही, उन पर सर द्वारा खिंची लकीरें और शब्द निहारती रही, बस! शब्द न फूटे। सर ने फिर टोका, तब पूछ पाई,  “कैसे किया इतना कुछ? इतनी जल्दी!”

  “अरे मैंने तो इसे एक दिन में ही निपटा दिया।…और देखो, सारी कविताएँ ध्यान से पढ़ी हैं।” वे हँसे।

 “इसलिए तो हैरान हूँ।”

 “तुम जानती हो न, जब काम करने बैठ जाता हूँ तो फिर– शाम से रात 1 बजे तक बैठा रहा और हो गया।” 

“और आपका दर्द?”

 “छोड़ न! काम हो गया न! काम नहीं रुकना चाहिए।”

    मैं नि:शब्द थी। बाद में नवल सर ने बताया कि सुधा की कविताओं को किताब का रूप देने की ओर नरेंद्र मोहन जी ने ही ध्यान दिलाया था। नरेंद्र मोहन सर साहित्य के जिस ऊँचे मुक़ाम पर हैं, उससे भी कहीं अधिक ऊँचाई उनके व्यक्तित्व की है। व्यक्तित्व ही युगांतरकारी बनाता है, क्योंकि तब केवल उनका साहित्य नहीं, उन पर लिखा गया साहित्य उन्हें युगों तक जीवित रखता है, यों कहें कि अमरता का वरदान दे जाता है। गाँधी अक्सर कहा करते थे, ‘मेरे लिखे पर नहीं मेरे कर्म पर विश्वास करो’। वे मानते थे, जो लिखा, वह उस समय का सच था। बदलते समय के साथ स्थितियाँ-परिस्थितियाँ ही नहीं, मन की गति भी बदलती है। इसलिए उन्होंने कहा भी, “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।” सर के लिए भी ऐसी ही प्रतीति होती है। समय-चक्र के साथ किस तरह मन की गति बदली और विचारों ने नई दिशा ली, यह सर की पिछले दो वर्षों की प्रकाशित-अप्रकाशित नई रचनाओं में दिख जाता है।

   8 दिसंबर 2019 की वह ख़ूबसूरत दुपहरी! मेरे आमंत्रण को उन्होंने स्वीकार किया और हरीश नवल सर ने उन्हें साथ लिवा लाने का दायित्व लिया। मयूर विहार के एक रेस्तराँ में हमने– स्नेह  सुधा नवल मैम, सत्यवती कॉलेज की प्राचार्या मंजुला दास मैम, हरीश नवल सर और नरेंद्र सर सहित मैं– हम सबने कई घंटे साथ गुज़ारे, खाना-पीना, कविता, सुधा मैम की पेंटिंग और यादगार तस्वीरें– कितने ख़ूबसूरत पल संजोए हमने। सर के बैकेक को लेकर मेरी चिंता बनी हुई थी, मगर उन्होंने ज़रा भी एहसास नहीं होने दिया। दूसरों की ख़ुशी के लिए ख़ुद को कष्ट देकर भी ख़ुश रहना संत स्वभाव होता है, यही स्वभाव पाया उनमें — हमेशा-हमेशा। उनकी अच्छाइयाँ दबे पाँव मेरे भीतर उतरती हुईं, मुझे समृद्ध करती गईं|

    एक और ख़ूबी मैंने अक्सर नोटिस की, जब तक वे दर्द सह सकते, तब तक घर आने से कभी मना नहीं करते और उसी तरह प्रसन्न होकर स्वागत करते और पूरा समय देते; कोई दायित्व स्वीकार लेते तो फिर अपनी व्यस्तता या तकलीफ़ की ज़रा परवाह न करते और घंटों बैठकर काम पूरा करते रहते, भले ही बाद में तकलीफ़ बढ़ जाए। अगर बैठने की स्थिति में नहीं होते तो आने से रोक देते। उन्हें पसंद नहीं था कि कोई उन्हें लेटे हुए या उनके चेहरे पर दर्द की लकीरें देखें।

        वर्ष 2020-21 ने  जीवन-रस सोख ही लिया| कई कारणों से मुलाकात की सूरत न बनी, इनमें से एक बड़ा कारण कोरोना की पहली लहर और लॉकडाउन रहा। फोन और मैसेज ने हमें जोड़े रखा। इस बीच उनकी पुस्तक पर अनूदित कई पुस्तकें आईं। उन्होंने कई अधूरी किताबें पूरी कीं, कुछ नया भी रचते रहे और पुराने के पुनर्मुद्रण की ओर भी सजग रहे। उनकी लगन, कर्मठता सचमुच हैरान करती। उनके समग्र साहित्य के खंडों में इज़ाफ़ा हुआ। चार खंड और प्रेस पहुँच गए जो 2021 के आरंभ में उनके सामने थे। उनका नया कविता संग्रह भी आ गया। कोरोना की दूसरी लहर देश-दुनिया पर हावी हो रही थी। 2020 में पहले शाहीन बाग़, फिर किसान आंदोलन, दिनोंदिन बिगड़ती देश की स्थिति ने उनके भीतर उपजी पीड़ा को सृजन की नई उर्वर ज़मीन दी और वे रचते चले गए। इस बीच विचार की एक दूसरी दिशा भी पुष्पित-पल्लवित हुई, जिसने  जीवन-दर्शन, तत्व-दर्शन एवं ईश्वर-संबंधी रचना की नींव रखी। 30 जुलाई,  2020 को वह वीडियो बन पाई, जिसकी तैयारी अपना स्वर देकर 29 जुलाई को थोड़ी जल्दबाज़ी में की थी। इसलिए अपने स्वर के आरोह -अवरोह से संतुष्ट नहीं थी। सर भी देख नहीं पाए थे| जब उन्होंने देखा तो मेरी कमियों को ख़ूबी में बदलते हुए कहा, “चकित-विस्मित हूँ। इतना अच्छा भी हो सकता है इस कविता (बाहु फ़ोर्ट से तवी)का पाठ!”  इसी तरह, दूसरी कविता (दिल्ली में लाहौर) की वीडियो देखकर कहा, “कविता के भीतरी स्तरों को छूने वाला संवेदनशील कविता पाठ।” उनके शब्द मेरे लिए अनमोल उपहार से कम नहीं थे। लॉकडाउन के दौरान उन्होंने काम की गति बढ़ा ली थी तो दर्द भी अधिक परेशान करने लगा था| जब मैं फोन पर नाराज़ होती (नाराज़ होने का हक़ सिर्फ़ मेरा था, उनका नहीं) तो आहिस्ते से समझाते, “निंदर तो तेरे साथ जीना चाहता है, लेकिन देह तो नरेंद्र मोहन की है| 20 साल तो नहीं, दस साल…| जाने क्यों उन्हें लगने लगा था कि ‘दस वर्ष साथ’ का वादा भी निभा न पाएँगे, मगर मेरी नाराज़गी और  पीड़ित होने से डरते थे, फिर भी फोन पर परोक्षत: समझाने की कोशिश करते रहते कि “जो पल हैं, बहुत हैं|”

 न समझा पाने की स्थिति में कहते, “अभी से क्यों चुप्पी साध ली| अभी तो हूँ ही न!|”

“आप आजकल ऐसी बातें क्यों करते हैं?”

“देख! आरती!अपने हिस्से का जी लिया| अब तो जो साँसें हैं वह सरप्लस है| गिफ्ट समझ ले| चाहता हूँ, चलता-फिरता चला जाऊँ| अब ….”

     उनका अधूरा वाक्य, उसके बाद की चुप्पी मुझे किस हद तक परेशान करती थी, उन्हें समझाना कठिन था| कैसे  समझाती?  लॉक डाउन ने लोगों का परस्पर मिलना-जुलना ही बंद नहीं किया, लॉक डाउन समाप्त होने पर भी किसी के घर बिना अपरिहार्य कारणों के जाना बंद ही था| सर की सेहत को ध्यान में रखकर भी उनके पास जाना न हुआ| पूरा वर्ष आँख-मिचौली खेलता हुआ बीत गया|  

     22 मार्च 2021 की सुबह! सर को कॉलेज से ही फोन किया, अनुमति ली और क्लास ख़त्म कर, चल पड़ी। लगभग 15 महीने बाद एक बार फिर वे उसी तरह इंतज़ार करते मिले, उसी तरह फिर ठहाके  लगे;  फिर सुमन दी के हाथ का सुस्वादु भोजन साथ में किया| उस दिन भी सर ने ही मेरी प्लेट सजाई और पहली बार मैंने उन अनमोल पलों को कैमरे में क़ैद कर लिया| उनके स्वर में कविता की गूँज को मोबाइल में सँजोया। कितनी ही बातें सहज प्रवाह में प्रवाहित होती रहीं! मंटो से लेकर पलों को पकड़ने तक और वहाँ से चलकर प्रेम के विस्तार और उसकी विराटता की अनुभूति में लीन होकर जीवन-मरण से समान रूप से प्रेम होने और वरण करने की बातें भी। पिछले वर्ष प्रकाशित कहानी संग्रह ‘सीट न. 49’ और सर के निर्देश पर उसी माह आया कविता संग्रह ‘मायने होने के’ साथ लेती गई थी। उनका कहा मेरे लिए ब्रह्म-वाक्य ही होता। यह भी उनके वात्सल्य और उससे भी अधिक साख्य भाव का ही प्रतिफल था कि उन्होंने अपनी कविता तो सुनाई ही, मेरी एक कविता को भी स्वर देकर उसे अमरत्व प्रदान कर  दिया। अपनी शेल्फ़ पर जाकर कुछ किताबें निकालने को कहा, उनमें से अंग्रेज़ी में अनूदित पुस्तकें देते हुए बोले, “श्रुति (मेरी बेटी) को कहना पढ़ने।”(मेरे बच्चों से  प्रत्यक्षत: मिलने का सुयोग  नहीं बन पाया  था, मगर श्रुति और अवि के लिए उनका आशीष हमेशा बरसता रहता) मुझे ‘अभंग गाथा’ दी। ‘मंटो ज़िंदा है’ सहित नाटकों का समग्र खंड आने वाला था और कविता संग्रह भी। “आने दे किताबें, तुझे भेज दूँगा। तेरे पास मेरी किताबें होनी ही चाहिए।” जाने को तत्पर हुई तो विदाई देते हुए हर बार की तरह बोले, “आज हमने क्वालिटी टाइम बिताया। तुम्हारा आना बहुत अच्छा लगा।” क्षण भर को लगा, मेरे भाव को सर ने शब्द दे दिया। शाम हो चली थी | मगर , सुमन दी ने चाय के लिए रोक लिया और इस तरह नियति ने मुझे कुछ और पल दे दिए| क्योंकि सर से दोबारा जो बातें शुरू हुईं, वह जीवन-दर्शन पर थीं| चपल निंदर कहीं नहीं था| सामने धीर-गंभीर चिंतक थे जिन्होंने कहा—“मृत्यु भी तो जीवन है| उससे भय कैसा? जब मृत्यु को नया जीवन मान लो और उससे भी प्रेम करने लगो तो फिर जाना जाने जैसा नहीं होता| और जीवन तो एक पल में जिया जाता है| …नहीं?… एक पल में आप पूरी ज़िंदगी जी लेते हैं| बस, उस पल को, उस क्षण को पकड़ने की बात है| उस क्षण को पकड़ लो, फिर देखो! … नाटक में भी तो ऐसा ही होता है! है न!… और प्रेम कभी मरता नहीं है| वह शाश्वत होता है|… तुम भी तो ऐसा ही मानती हो| ”  मैं हैरानी से उनका चेहरा देखती हुई  सहमति में सिर हिलाती रही, बोल न फूटे| आध्यात्मिक मार्ग , शाश्वत प्रेम, मृत्यु को नया जीवन मानने के मेरे विचार को सुनकर जो नरेंद्र सर मुझे हमेशा कहते थे, “क्या चोला बदलने की बात कहती रहती है! अभी से ऐसी बातें न कर! तुझे तो अभी बहुत कुछ देखना-करना है|”  वे आज वही सब कह रहे थे, आत्मलीन से! मेरे सामने होकर भी दूर कहीं मौन को सुनते हुए!  भाव से भरी विदा हुई। कहाँ पता था,आँख-कान पुनः प्रत्यक्षत: देख-सुन नहीं पाएँगे। फोन पर गाहे-ब-गाहे संवाद ज़ारी रहा। 26 अप्रैल को  उनका अंतिम फोन आया, वस्तुस्थिति की जानकारी दी  और 28 अप्रैल को मोबाइल पर लिखित दुआएँ मिलीं। वे दुआएँ, वे प्रार्थनाएँ प्राणवायु सदृश जीवनदायिनी हैं। उनकी ध्वनित-अध्वनित ध्वनियों की अनुगूँज वायुमंडल में व्याप रहीं, “एक बड़ी वेबलेंथ बने– सही शब्दों की और उस वेबलेंथ में हम(लेखक/ पाठक) साथ-साथ चलें। आपका शब्द जब हज़ारों-लाखों लोगों तक पहुँचता है, उस शब्द में इतनी ताक़त होनी चाहिए कि वह सचमुच एक संवेदनात्मक वैचारिक वेबलेंथ हो जाए जो एक सुलभ संचार बन जाए। मेरे दिल से निकले और आपके दिल तक पहुँच जाए। एक लाइव कनेक्शन। दो लोगों को जोड़ने वाला लाइव तार।”

   देख रही हूँ सारी कायनात मौन के कुएँ से निकले उनके शब्दों से संवेदनात्मक वैचारिक संबंध बना रही। उन शब्दों में अंतर्निहित ध्वनियाँ देश-काल से परे व्याप रही हैं…।        

 वर्ष : 2021 https://youtu.be/5tWlXSphuGE

15 may

संस्मरण : तेरे लिए तो सबसे बड़ा कमरा ; साहित्य कुंज

https://m.sahityakunj.net/entries/view/tere-liye-to-sabse-badxa-kamaraa?fbclid=IwAR0TYB_UyNDh8oPlrJeSQRDT656TrGOBVq5uT-ST1wPNwzblzB4CBcewRWM

समय के रथ पर सवार जीवन जब यात्रा पर निकल पड़ता है तब अनेक मोड़ों /अनेक पड़ावों के पल उसकी भावी यात्रा के आजीवन सहचर बन जाते हैं। ये पल कभी स्मृतियों के विशाल प्रांगण में छुपन-छुपाई का खेल खेलते हैं तो कभी आशीष का जलप्रपात बन सारी तपिश हर लेते हैं . . . कभी-कभी प्रतिपल ज्योतित आलोक बन, आगे की राह दिखाते चलते हैं। ऐसा ही एक प्रकाश पुंज मेरे जीवन में उतर आया। दुनिया के लिए अभी चिकित्सक, मेडिकल कॉलेज के प्रोफ़ेसर और नाक-कान-गला विभाग के विभागाध्यक्ष, मानवता की रेलिंग थामे, अध्यात्म की सीढ़ी चढ़ते जाने वाले साधक तो मेरे लिए एकमात्र ऐसे संरक्षक, अभिभावक, मार्गदर्शक और मित्र डॉ. लक्ष्मीकांत सहाय, जहाँ मैं खुली किताब थी। यों भी मेरे बारे में जानने के लिए मेरे शब्दों की आवश्यकता न थी, वे तो अनकहा समझते थे, समझते ही नहीं थे, जो मैं जान भी न पाऊँ कि जीवन के इस या अगले मोड़ पर क्या घटित हो रहा या होने वाला है, वे जान जाते और संरक्षक की तरह बच्चों सहित मुझे बचा ले जाते। ज्यों-ज्यों उनकी साधना बढ़ती गई, वे आत्मलीन होते गए, भौतिक तत्वों से विरक्ति तो दशकों पहले से थी, मगर आत्मिक संबंध भौतिकता से परे होते हैं, उसका निर्वहन वे आज भी कर रहे, जबकि संसार के लिए पिछले वर्ष ही विदेह हो चुके। 

अंकल के निर्निमेष नेत्र आज भी उसी अतुल स्नेह से निहार रहे और मंद मुस्कान में अस्फुटित आशीष बरसा रहे, जिसे स्पष्ट रूप में महसूस रही . . . हमेशा की तरह! पिछले पड़ावों को निहारूँ तो पट खुलता है वर्ष 1992 का, जब उनकी क्लीनिक बतौर मरीज़ गई थी। शहर में उनके नाम की चर्चा थी। महज़ इसलिए नहीं कि बुज़ुर्ग अनुभवी चिकित्सक थे, इसलिए कि समय के साथ चिकित्सा-क्षेत्र में बढ़ते कोलाहलों के बीच वे अपनी पुरानी पद्धति और सबसे कम फ़ीस सहित एक दिन में गिने-चुने मरीज़ देखते, ग़रीब मरीज़ से फ़ीस लेना तो दूर, दवाएँ भी दे देते और कहीं कुछ और ज़रूरत हो तो अपना रेफ़्रेंस लेटर भी ताकि उस मरीज़ को हर जगह रियायत मिल सके। आस-पास के गाँव के लोग सुबह से लाइन लगाए रहते। सुबह से फोन पर नंबर बुकिंग की सुविधा थी। हर एक मरीज़ को पूरा समय देना, उसके मनोविज्ञान को समझना और फिर दवा और उससे भी अधिक सलाह देना उनकी कार्यशैली थी। डॉक्टर सहाय ने मुझे देखा, आँखें चेक की और पलकों तले बोझिलता पढ़ ली, साइनस के पोईंट चेक किए और पर्चे पर दवा व परहेज़ लिखने लगे। दो-तीन तरह की मुहर मारी जिनमें अलग-अलग हिदायतें अंकित थीं। ज़ुबानी ज़्यादा कुछ नहीं कहा, पर्चा दिखाते हुए बोले, “पढ़ इसको . . . समझी! तेरी बीमारी भीतर ही भीतर घुटते रहना है। तनाव से भी साइनस बढ़ता है। तेरा शरीर बाहरी दबाव से कम मन-मस्तिष्क के दबाव में अधिक और तुरंत आता है। बाहरी वातावरण के बुरे प्रभाव से बचने का नुस्ख़ा पर्चे पर है।” मैं सिर हिलाती हुई उन्हें देखती रही, ऐसा अनोखा डॉक्टर पहली बार देखा, जो मन की गाँठें पहली बार में टोह ले– वह भी बिना कुछ पूछे। उनकी आँखों में ममता थी, वात्सल्य था, अनकहा संदेश भी कि ‘ज़िंदगी ख़ूबसूरत है, इससे प्यार करना चाहिए’। 

ये पहले डॉक्टर थे, जिनके लिए पहली मुलाक़ात में ही सम्मान ही नहीं श्रद्धा-भाव भी उभरा था। फिर तो जब भी कोई दिक़्क़त आती, उनके पास ही जाती और हर बार वे दवा-परहेज़ तो लिखते, अदृश्य दुआओं की पोटली चुपचाप मुझे थमा देते, इसलिए वहाँ से जब लौटती तो आधी तकलीफ़ ग़ायब! बीच के कुछ वर्षों में उनकी क्लीनिक जाने का क्रम टूटा। मुझे लगा, वे भूल गए होंगे, मगर उन्हें मैं–वर्षों पहले की उनकी मरीज़ उन्हें याद थी। 2008 के उत्तरार्ध में अनायास उन्हें देखा तो देखकर ही ख़ुश हो गई । राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार और शिक्षाविद डॉक्टर राधाकृष्ण सहाय जिन्हें भागलपुर विश्वविद्यालय के समस्त हिंदी प्राध्यापक और कमिश्नरी के साहित्यकार अपना अभिभावक मानते थे, के साथ ही चिकित्सक डॉक्टर सहाय का कई साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़ाव होना अच्छा लगा। ये संस्थाएँ उन्हें बुलाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करतीं। उस माटी की एक ख़ूबी है, साहित्य-शिक्षा-संस्कृति से संबंध लोग या संस्थाएँ खुले मन से उस माटी से जुड़े और अतीत हो चुके व्यक्तित्व को अमरता प्रदान करने के लिए कुछ न कुछ ठोस काम करते रहते हैं, अपने से वरिष्ठ से आशीष लेने से नहीं चूकते और न ही किसी के सहयोग से। माटी और भाषा/बोली के प्रति गहन आस्था और समर्पण दिखता है उनमें। इसलिए तमाम व्यस्तताओं के बावजूद सहाय अंकल किसी को निराश नहीं करते थे। जब मैंने उन्हें देखा तो सहसा सिर उनके क़दम की ओर झुक गए। उनके नेत्र वात्सल्य से भरे-भरे थे तब भी। आकाशवाणी के राष्ट्रीय मंचीय कार्यक्रमों में भी वे बतौर सम्मानित अतिथि बुलाए जाते। ख़ास कर आकाशवाणी के मेरे दोनों मंचीय कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति देर तक बनी रही। अब अंकल से मिलने के लिए मुझे न बीमार होने की आवश्यकता थी, न मरीज़ बनकर उनके सामने जाने की। अपने सीनियर कंपाउंडर से उन्होंने कह रखा था कि मेरे आने-जाने पर टोक-टाक न करे। सो, जब उस तरफ़ से गुज़रती, क्लीनिक घुसती, अंदर अधिक मरीज़ होते या वे अधिक व्यस्त होते तो पास रखी विज़िटर्स चेयर पर बैठ जाती। वे सवालिया निगाह उठाते कि सब ठीक है न। मेरी ओर से आश्वासन का संकेत पाकर फिर मरीज़ देखने लग जाते। उनके पास के मरीज़ जब चले जाते तो मेरा हाल पूछते, मैं बैठने के मूड में होती तो कोई बात ही नहीं, नहीं तो उनके गले लग, उनके चरण छू कर निकल आती। धीरे-धीरे उनके जीवन में मेरा अधिकार-क्षेत्र बढ़ता गया और मेरे जीवन में उनका कर्म-क्षेत्र। मैं सभी को मित्र कहती हूँ, मगर प्रायः संबंध ऐसे कि फिर मैंने ही अपने हिस्से की दोस्ती निभाई– बे-आवाज़! कहीं भी उसकी धमक सुनाई न दे और जिसे स्वीकारा है, उसे भर दूँ, फिर वह कोई भी हो– किसी भी उम्र का हो। ईश्वर के बाद एकमात्र सहाय अंकल ही ऐसे व्यक्तित्व मिले, जो मेरे जीवन के संरक्षक, मार्गदर्शक, अभिभावक और गहरे मित्र बने रहे। मैं उनकी मित्र नहीं थी। जिसने ईश्वर को इसी जीवन में पा लिया हो, उसे किसी से कुछ साझा करने की ज़रूरत नहीं होती, यह महसूसा था उनमें। ऐसा नहीं था कि कुछ भी साझा नहीं करते थे, ज्यों-ज्यों आत्मीयता गहराती गई, वे खुलने लगे थे। किसी मसले पर वे खुल कर राय देते, बिला वज़ह टोक-टाक नहीं करते, न ही अपने ज्ञान और साधना का प्रदर्शन करते थे। मैंने उनसे जो भी सीखा पाया, वह उन्हें देखकर– उनके कार्य-व्यवहार को देख-परख कर। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा था, “मुझे जाँचो-परखो, फिर मेरी बात का विश्वास करो” गाँधी ने भी यही कहा, “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।” स्वामी विवेकानंद ने कहा– “तुम्हें कोई पढ़ा नहीं सकता, कोई आध्यात्मिक बना नहीं सकता। तुमको सब कुछ स्वयं अंतस से सीखना है।आत्मा से अच्छा शिक्षक कोई नहीं है।” अंकल की प्रवृत्ति और प्रकृति समय के बढ़ते चक्र के साथ जिस प्रकार, संतनुमा हो गई थी, उसके प्रदर्शन के लिए उन्हें वाणी या वेशभूषा में बाह्य आडंबर रचने की आवश्यकता न हुई। वे जैसे रहते थे, जो पहनते थे, अंतिम समय तक वह बना ही रहा। मर्यादा, चरित्र आदि की दुनियावी परिभाषा पर वे मुस्कुराते, कहते, “इन बातों का वहाँ कोई मतलब नहीं।” 

नवंबर 2009! जब डायरी से निकल कर मेरी कविताएँ ‘अंतर्मन’ के नाम पुस्तक रूप में सामने आईं। लोकार्पण समारोह में शहर के दिग्गज साहित्यकार शिव कुमार शिव, रंजन कुमार व अन्य सहित मेरे तीन पूज्य— माँ, बाबा और सहाय अंकल एक साथ डायस पर उपस्थित थे, इससे बड़ा उपहार क्या होता मेरे लिए! सारी व्यवस्था मानवजी ने की थी। अंकल के कथन इतने सारगर्भित और मर्मस्पर्शी थे, अर्थ के कितने ही आयाम प्रस्तुत कर दिए थे उन्होंने! काश! वह आवाज़ सुरक्षित रख पाती! मई 2010 में ‘ज्योति कलश’ के लोकार्पण समारोह का दायित्व आकाशवाणी के वरिष्ठ संचालकों एवं कलाकारों ने सँभाला था। मेरे गीत उनके स्वर में जी उठे थे। माँ-बाबा नहीं आ पाए तो मन ज़रा उदास था, सहाय अंकल ने महसूस लिया और अपने काम को छोड़कर हाज़िर! इस बार डॉक्टर राधाकृष्ण सहाय भी उपस्थित थे। उन दोनों की उपस्थिति कार्यक्रम को शीर्ष तक ले गई। 

वर्ष 2009–10 एक ओर मुझे साहित्य की बाहरी दुनिया की ओर खींच रहा था, दूसरी ओर मानसिक संघर्ष भी उसी अनुपात में बढ़ता गया था। बाहरी दुनिया से मेरा तात्पर्य मंचीय कार्यक्रमों में शिरकत करने या सम्मान स्वीकारने से है। बतौर कहानीकार, कवयित्री, बाल रचनाकार आकाशवाणी 1995 से ही जाती रही थी। मानसिक संघर्ष के कई कारण थे। उस समय मेरी अवस्था अंकल ने बतौर चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक और अभिभावक बनकर समझी। यह वह समय था जब मन की परतें खुलती गईं। उन्होंने दवा न के बराबर दी। सुबह से क्लीनिक में होते, शाम को वहाँ से निकलकर मेरे पास आते। मैं जानती थी, यह अंकल के आराम करने का समय है, जो उनके लिए बेहद ज़रूरी भी था, मगर उन्होंने निर्णय ले लिया कि जब तक मैं अवसाद के घेरे से एक सीमा तक मुक्त नहीं हो जाती। वे रोज़ शाम को आते, घंटे-डेढ़ घंटे बैठते, मैं ज़मीन पर उनके पैर के पास बैठकर उनकी गोद में सिर रखकर सुबक लेती। कभी-कभी तो आँसू भीतर ही भीतर बहते और वे कुछ सोचते हुए सिर सहलाते रहते। फिर दोनों बच्चों के साथ बातें करते, सासु माँ नज़र आतीं तो उनसे समधी के नाते खड़े होकर मिलते। मैं जब पूछती, “आप खड़े क्यों हो जाते हैं?” तो मुस्कुराकर कहते, “तेरा बाप हूँ तो खड़ा तो होना पड़ेगा न! समाज की रीत है कि बेटी का बाप हमेशा झुकता है।” 

“चाहे सामने वाला उस योग्य हो या न हो?” 

“छोड़ न, उससे मेरा आकार छोटा थोड़े हो जाता है—चल-चल अब कॉफ़ी पिला। ड्राइवर को भी तो घर जाना है।” ऐसी ही कई बातें, कई परंपराएँ जिनके प्रति उनकी आस्था गहरी न थी, निभाए जाते थे और मैं चिढ़ जाती थी। अब समझ रही हूँ, वे व्यर्थ की बातों में उलझने के बजाय परंपरा में घुस आई बुराइयों के निराकरण पर चिंतन करते और अपने ढंग से उन्मूलन करते थे। 

अनोखे चिकित्सक! उनके पास कई ऐसी मरीज़ थीं, जिनमें तनाव का कारण परिवार था, ऐसी मरीज़ को बेटी का दर्जा ही नहीं, वही प्यार-दुलार, अधिकार और किसी भी समय अपनी हर परेशानी को साझा करने और सलाह लेने की छूट देते जो ग्रामीण/क़स्बाई/छोटे शहर के मध्यवर्गीय परिवार में विवाहित बेटियों को मयस्सर नहीं होता। धीरे-धीरे मर्ज़ तो ग़ायब हो जाता, वे बेटियाँ आत्मबल से भरने लगतीं और जीने की राह बनाने लगतीं। वे समाज के इस ताने-बाने से दुखी होते, विवाहित नवयुवती की आत्महत्या व अवसादग्रस्त होते-होते बीमारियों का पुलिंदा होते जाने को वे अपने चिकित्सा-क्षेत्र के लगभग छह दशकों के अनुभव से समझ रहे थे। अंकल कभी-कभी चर्चा करते उन बेटियों की। एक दिन मैंने झूठ-मूठ का रोष जताते हुए कहा, “अंकल देख रही हूँ, बेटियों की संख्या बहुत बढ़ा ली है आपने, अगर मेरे हिस्से का दुलार एक छटाँक भी कम हुआ न तो देख लीजिएगा।” 

अंकल हँसे “पागल हुई है क्या? तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता। चिंता मत कर, अंदर बहुत जगह है। सबके लिए अलग-अलग कमरा। . . . और तेरा कमरा तो सबसे बड़ा है।” 

अंकल सिर्फ़ सच बोलते और सच की राह ही चलते हैं, जानती थी, फिर भी उनके ऊपर अपने अधिकार-भाव को बनाए रखने का सुख भला कैसे छोड़ती! अंकल भी मेरे इस भाव को समझते और मेरे बचपने को अपने पास सुरक्षित रखने की कोशिश करते जो वर्षों पहले खो गया था। उनका ही साथ रहा जो 2009 से 2018 तक की तमाम बहुआयामी चुनौतियों से संघर्ष कर सकी। 

वर्ष 2010! अंकल बोले, “आज तेरी ज़रूरत है।” मेरे लिए यह नया था कि अंकल के विश्वास की कसौटी पर खरा उतर सकूँ, कुछ कर सकूँ। अंकल के छोटे भाई की पत्नी अपने बेटे के करियर की चिंता और अवसाद में इस क़दर बिस्तर पर आ गई कि किसी की दवा काम नहीं कर रही थी। उन्होंने खाना-पीना कम कर दिया था। अंकल रिश्ते की ज़ंजीर से बँधे थे। वे मर्ज़ समझ रहे थे, समझा सकते थे, मगर उस तरह दुलार कर नहीं। उन्हें विश्वास था कि मैं यह कर सकूँगी। मेरी अस्वीकृति का प्रश्न ही कहाँ था! रोज़ सुबह गाड़ी लेने आती और चार-पाँच घंटे बाद घर पहुँचा जाती।

पहला दिन ! अंकल क्लीनिक जाने को तैयार! मेरे इंतज़ार में बरामदे पर चहलक़दमी करते हुए मिले। मुझे साथ लेकर बड़े वाले कमरे में आंटी जी के सामने खड़ा कर दिया और बोले, “ये मेरी बेटी है। तुमसे मिलने आई है। मैं क्लीनिक जा रहा हूँ।” अंकल ने और कुछ नहीं कहा। मैं कुछ देर संकोच से घिरी रही, फिर नज़र घुमाई। आंटी जी का बेटा माँ के बिस्तर के पास टेबल पर सिर झुकाए बैठा नज़र आया। प्यारा-सा बच्चा, मगर उदास क्यों है? फिर मैं भी कुर्सी खींचकर बैठ गई और आंटी जी से बात करने लगी। बात करने के दौरान उनकी हथेली अपनी हथेली पर रख कर प्यार से थपथपाती रही। धीरे-धीरे आंटी जी खुलने लगीं, उनके भीतर जमा अवसाद का गहरा धुआँ अब छँटने लगा। उनका बेटा रिशु जो बारहवीं में कम नंबर लाने के कारण अपराधी की तरह महसूस कर रहा था, वह भी खुलने लगा। दो से तीन दिन में आंटी के चेहरे की रंगत बदल गई। वे उठकर बैठने लगीं और चौथे दिन तो ज़िद करके उन्होंने अपने हाथ से लेमन टी बनाकर पिलाई। रिशु ख़ुश था, अंकल भी! एक दिन आंटी की हथेली थामे मैंने कहा, “हर इंसान के भीतर एक बच्चा होता है, उसे बचाए रखना चाहिए। . . . आपको भी! उम्र के बंधन अवसाद बढ़ाते हैं मगर भीतर बैठा बच्चा ख़ुशी के क्षण ढूँढ ही लेता है । रिशु बहुत अच्छा बच्चा है। बहुत प्रतिभाशाली! एक दिन बहुत आगे जाएगा।” मैंने तो सहज भाव से कहा, मगर जाने क्या असर हुआ, आंटी जी का अवसाद मिट चला। अंकल बरामदे से मेरी बात सुन रहे थे। दूसरे दिन उन्होंने फोन किया। आवाज़ में चहक थी। बोले, “मेरा विश्वास जीत गया। तुम उसको बचा लाई। अब तो मैं हर पेशेंट से कहता हूँ, ‘हर इंसान के भीतर एक बच्चा होता है, उसको बचाकर रखो’। . . . तुम्हारा यह फ़ॉर्मूला बड़े काम का है।” दिल को सुकून मिला, कि अंकल की परेशानी कुछ कम कर पाई। यह उनके विश्वास और स्नेह का ही प्रतिफल था और कुछ नहीं। एक बात वे हमेशा कहते, “तुझे कोई समझ नहीं सका, इसलिए तुझसे कुछ पा न सका। ऐसे ही थोड़े न बेटी बनाया है।” अंकल ने इसी तरह मुझपर प्रेम और विश्वास बनाए रखा कि उस नेमत को बनाए रखने के लिए मैं रह-रह कर ख़ुद को जाँचने लगी थी। कई बार उनसे ही पूछ बैठती, “मैं सही राह पर हूँ न!” 

“जिस दिन डिगोगी, मेरी बेटी नहीं रहोगी। चिंता मत कर! तेरी दिशा सही है। ऐसा कुछ आभास होगा तो मैं पहले ही चेता दूँगा। वह नौबत ही नहीं आएगी।” अंकल ने आजीवन निभाया इसे। अब, जबकि उनका आभास दिव्य ऊर्जा-पुंज के रूप में होता है, वहाँ से बरसती दिव्य आभा महसूसती हूँ। यह भ्रम या कोरी कल्पना नहीं है। 

वर्ष 2011! मेरे जीवन में उथल-पुथल ! दिल्ली आ जाना! आ जाने के बाद अपनों के द्वारा मिलने वाले मानसिक आघात और उसके कारण जीवन का पटरी से उतर जाना। कई रंग देखे मानव चरित्र के, बस एकमात्र अंकल ही थे जो कोसों दूर होने के बावजूद मेरे और बच्चों के लिए चिंतनमग्न रहे, मुझे राह दिखाते रहे, प्रतिकूल परिस्थितियों में साहस बढ़ाते रहे। मगर फोन की भी अपनी सीमा है। वे तो साधनारत हो, मेरे और बच्चों की स्थिति जान जाते मगर मैं उनसे बात की बिना विकल होती। उनकी किडनी पर हल्का दबाव शुरू हो चुका था। खाना-पीना तो यों भी संयम से था। मगर आराम न करते, परिवार-सगे-संबंधी, दिल से जुड़े संबंध और ग़रीब मरीज़—सबकी ख़ुशी का ध्यान रखते हुए सबके लिए कर्मरत! 2015 से बीमारी प्रत्यक्ष रूप में उभरी, मगर उन्हें कहाँ चैन! पाँच वर्ष बाद 2016 में जब मेरा भागलपुर जाना हुआ तब थोड़े सुस्त लगे, मगर साधना उत्तरोत्तर ऊर्ध्वमुखी! जब मैंने स्वास्थ्य को लेकर टोका तो उनके चेहरे पर वही संत-सी मुस्कान बिखरी, बोले, “अरे बेटा! जब तक चल सकता है, चलने देते हैं। बड़ी आसरा रहता है गाँव के पेशेंट को। बेचारा ग़रीब! कहाँ जाएगा?” 

“क्लीनिक गए बिना आप जी भी नहीं सकते, मालूम है, लेकिन इलाज तो करवाइए।“ 

“वो है न, वही जाने सब कुछ! एक साल तो हो गया। तुम्हारा भैया का मन रखने के लिए दिखा लिए, दवा भी है लेकिन खाएँगे नहीं।” 

“ये कैसी ज़िद है! किसी की बीमारी ओढ़ी है क्या?” 

उन्होंने सवाल टाल दिया और जवाब को दूसरी दिशा दे दी, “यहीं सब भोग कर जाएँ तो अच्छा है। . . . चिंता मत कर! अभी बहुत समय है।”

वर्ष 2017, साहित्यायन ट्रस्ट की ओर से बाल पुस्तकालय खोलने के क्रम में भागलपुर जाना हुआ तो पहली बार अंकल के साथ कुछ अधिक रहने और लंबा संवाद करने का अवसर मिला। मैं महसूस रही थी, वे देहधारी होकर भी देह से परे होते जा रहे थे। उस समय भी स्वामी विवेकानंद को महसूसा था, देख रही थी आचरण में उतरे हुए। सामाजिक दायित्वों का निर्वहन उसी गति से करते, साधना गहन हो चली थी। सांसारिक मान्यताओं और उसके दृश्यमान स्वरूप की असारता का भान तो पहले से ही था, अब परतें खुलने लगी थीं। नाथ नगर में कार्यक्रम के दौरान वे पूरे समय साथ रहे, बाहर ही भोजन किया हमने, फिर हमें घर रवाना कर, दूसरी बेटी को दिया वचन निभाने चले गए। शाम से रात 10 बजे के कुछ बाद तक हमारी बातचीत होती रही। इस बीच मुझे अपने हाथ से सादा भोजन बनाकर अंकल को खिलाने का अवसर मिला। उस पल जो आत्मतुष्टि हुई, उसे शब्द नहीं दे सकती। मुझे याद है, कम शब्दों में ही मर्यादा, चरित्र आदि बातों पर नए सिरे से और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से उन्होंने मेरी जिज्ञासाओं का शमन किया था। अंकल मेरे समक्ष सत्य के प्रतिरूप थे। पिता को भी देखा था सदैव सत्य-पथ पर चलते हुए, उनकी आंतरिक साधना कभी समझने का अवसर नहीं मिला, मिला भी तो अंतिम दिनों में किंतु अंकल तो मेरे हर तरह की जिज्ञासाओं का समाधान करने वाले इंसाइक्लोपीडिया थे। उनसे बात करने के बाद मन में कभी संबद्ध विषय को लेकर संशय न रहता। कभी-कभी हँसकर कहते भी, “अरे बेटा! तोरा जन्म नै दिए तो क्या, हैं तो बापे न” मैं भी हँसकर स्वीकारती, कभी इस वाक्य की तह में जाने की कोशिश नहीं की। आवश्यकता नहीं पड़ी। उनका स्नेह एक ओर ,सारे संबंध दूसरी ओर। आज भी उनकी जगह कोई नहीं ले सकता। जगह लेना तो दूर, उनके स्तर पर खड़े होने योग्य कोई नहीं दिखता। 

यहाँ एक उल्लेख ज़रूरी जान पड़ता है। मैं निराश होती दिल्ली की कलाकारी से / मौसम से अधिक बदलते बड़े-बड़े प्रतिष्ठित लोगों को देखा, उनके बहुरूपिए व्यवहार देखे, प्रत्यक्षत: सहयोगी बनकर अपनी हीनता या अभाव को तुष्ट करने का माध्यम मुझे बनाते देखा और मैत्री के नाम पर सीढ़ी से धकेलना भी . . . मैं अवाक्! अंकल से कहती, बार-बार कहती, “कब आएँगे आप? मुझे ढेरों बात करनी है। फोन पर नहीं . . . आपके पास बैठकर बात करनी है।” 
“इतने दिन हो गए तुझे। अब तक तो दिल्ली को समझ लेना था। कैसे नहीं समझी अब तक!” 

“आप जैसा कोई नहीं जिस पर पूरा भरोसा किया जा सके।” 

“अब तक मिला नहीं? . . . मिल जाएगा बेटा! मिल जाएगा। परेशान न हो।” 

“कोई भी आप जैसा नहीं हो सकता। भगवान जी ने दूसरा पीस ही नहीं बनाया।” 

वे ज़ोर से हँसे थे। 

“हम तो हैये हैं न! तुझे और नाती-नातिन को देखने-सुनने के लिए हमको फोन का ज़रूरत थोड़े पड़ता है।” 

“तो हमको भी सिखाइए न!” 

“सीख जाएगी बेटा! वक़्त आने दे।” 

अंकल की दोनों बातें सत्य साबित हुई। हालाँकि आरंभ में जिन्हें वर्षों तक अंकल के बाद स्थान देती रही, वह भ्रम टूटा और सही पात्र / आध्यात्मिक सलाहकार मिला और उनके माध्यम से अंकल के उस उच्च दिव्य स्तर को समझ पाई। . . . और मज़ेदार बात यह कि जब भी अंकल से मिली तो मेरे पास उद्विग्नता भरे सवाल स्मृति में ठहरते ही नहीं। अंकल के सान्निध्य में मन-मस्तिष्क जैसे भूल-सा जाता।

वर्ष 2018 में माँ जीवन और मौत के बीच झूल रही थी, ऐसी त्रासद स्थिति में बिहार जाना हुआ तो अंकल से मिले बिना लौटने का सवाल कहाँ था! मगर अंकल के साथ ज़्यादा समय नहीं बिता सकी। शेष समय उलझन भरा ही रहा, न मिल पाने की अजीब-सी मन:स्थिति के साथ। बीच के कालखंडों में रिषु से पता चला था, अंकल अधिक बीमार रहने लगे हैं। राजेश भैया भाभी जबरन साथ ले गए हैं ताकि आराम कर सकें। मैं जानती थी उन्हें चैन न होगा। वे मरीज़ों की चिंता सहित अपनी सभी बेटियों की चिंता से मुक्त नहीं होंगे। ड्राइवर, रसोइया सभी का परिवार भी तो उन पर ही आश्रित था, अन्य कई युवा छात्र भी। मैंने पहले भी उनसे कहा था कि राजेश भैया की बात मान लें, वहीं रहें। नहीं माने थे वे . . . पूरी ज़िंदगी डॉक्टर सहाय बनकर रहे हैं। हर एक के लिए द्वार खुला रहा। 

“वहाँ लोग राजेश को जानते हैं, हमको उसका पिता के रूप में ही जानेंगे।” 

“तो वहीं क्लीनिक खोल लीजिएगा, मन लगा रहेगा।” 

“राजेश भी यही कहता है। अब इ उमर में हम ज़मीन से नहीं उखड़ेंगे। यहाँ जो लोग हमसे जुड़े हैं, (इलाज, आजीविका और सहयोग के लिए) भरोसा करते हैं, उनको ऐसे कैसे छोड़ दें? आज 40 बरस से जो मान-सम्मान, प्यार मिला है यहाँ, अपना आराम के लिए सब कुछ भुला दें, छोड़ दें? . . . जब तक ज़िंदा हैं , भागलपुर नहीं छोड़ेंगे। नहीं रहेंगे, तब बात अलग है।” 

“मेरे बाबा वाला हठ!” 

“तुम अभी नहीं समझ रही बेटा! समझ जाएगी।”

मानती हूँ, माटी का भी क़र्ज़ होता है। उसके प्रति भी लगाव होता है। यह मोह नहीं, स्नेह का वह अप्रतिम रूप है जो माता-शिशु के के वात्सल्य-भाव में झलकता है। अपनी माँ-सी माटी की गोद में हमेशा के लिए सो जाना! 

2019 में मेरे पिता की स्थिति का जायज़ा साधना के स्तर पर लेते और मुझे बताते रहे थे अंकल, सलाह भी दी थी जिसे सही समय पर मेरे परिवार ने नहीं सुना और स्थिति बिगड़ती चली गई। मेरी बहुआयामी स्थिति ऐसी थी कि दिल्ली में सिवाय अवसादित होने के कुछ नहीं कर सकती थी। आश्चर्य यह कि अंकल के आगाह करने के बावजूद एक बार जाने की कोशिश की तो कई तरह की हानि उठाकर स्टेशन से घर वापस आना पड़ा, बड़ी मुश्किल से मिला रिज़र्वेशन बरबाद हो गया। फिर उसी दिन जा पाई जो तिथि उन्होंने पहले ही बताई थी। कई ऐसी अनहोनी, जिसका मानसिक आघात मुझे मिलना था, सबकी चर्चा वे पहले ही कर चुके थे, फोन पर समझाया था बार-बार कि मुझे झेलने ही होंगे आघात मगर शांत रखना होगा ख़ुद को . . . वह हो न सका। पिता को असहाय अवस्था में एक-एक पल रिक्त होते देख रही थी। इसी बीच एक दिन के लिए भागलपुर गई। अंकल शांत थे, नब्ज़ ही नहीं, हाथ के एक स्नायु के भीतर की गति शताब्दी ट्रेन से भी अधिक गति में। उन्हें उस मकान को छोड़ना था, जिसमें पाँच दशक गुज़ार चुके, जहाँ के कण-कण में परिवार की यादें बसी थीं, जो मकान उन्हें हमेशा घर लगा। कई बड़े-बड़े त्रासद क्षण उन्होंने इसी मकान में भोगे थे, इसी मकान में आत्म को ढूँढा और पाया था। मैं जब गई तो दरवाज़े पर ताला लगा देखकर हैरान-परेशान हुई। लगभग घंटे भर बाद अंकल की गाड़ी की आवाज़ सुनी तो तसल्ली हुई। आदतन गाड़ी से उनके उतरते ही गले मिली, फिर उलाहना दिया, “भूल कैसे गए हम आने वाले हैं ?” अंकल ने भीतर चलने का इशारा दिया। अंकल की एक और मेरी जैसी ही बेटी जो मेरे दिल्ली जाने के बाद और अंकल के अस्वस्थ होने के बाद उनसे अधिक जुड़ गई थी। मैंने पाया, उसके भीतर अपने अधिकार भाव का रोष बहुत अधिक होता, ख़ास कर जब मेरे जाने पर अंकल मेरे साथ होते, साथ खाते-पीते। मैं समझती और उसके रोष पर प्यार आता। अंकल भी समझते मगर बात टाल जाते। उस दिन अंकल की तबियत का नासाज़ होना दिख रहा था। उन्होंने खाना भी नहीं खाया। लेटे-लेटे सारी बातें कीं। वे थोड़ी देर सोना चाहते थे, मगर उनकी वही बेटी हर पाँच मिनट में लगभग 4-5 बार फोन करके कभी दवा के लिए कभी किसी बात के लिए कहलवाती रही, इससे अंकल की नींद बार-बार टूट रही थी। मैंने कहा, थोड़ी देर के लिए साइलेंट कर दीजिए, मगर वह भी हो न सका। मैं उसकी बुद्धि पर तरस खाती रही, इतने दिनों से अंकल से जुड़ी रहकर भी वह अंकल को समझ नहीं पाई, यह भी नहीं की उसके व्यवहार से अंकल की परेशानी बढ़ रही। अंकल मेरे शब्द से अधिक मेरे मन को पढ़ने में सक्षम थे, उस हालत में भी . . . । मैं उनके पास बैठी इंतज़ार करती रही, अंकल थोड़ा सो लें तो फिर बात हो। मिनट-मिनट किसी न किसी कारण से खिसकता गया। बाबा से संबंधित कुछ निर्देश दिए, आगाह किया कि वे 31 से पहले भी जा सकते हैं। यही बात मेरे पिता ने भी कही थी, की 31 तक रुक नहीं सकेंगे। मैंने देखा, अंकल बाबा के बारे में बताते हुए बीच-बीच में कहीं शून्य में अधखुली आँखों से निहारते रहते। पूछ बैठी तो मुस्कुरा कर बोले, “ऊपर से ही तो ज़वाब मिलता है। . . . मेरे लिए चिंता मत कर। अभी तो हैं ही।” 

“फिर मुलाक़ात होगी?” 

“देखो, होना तो चाहिए। अभी मेरे जाने में देर है।” 

फिर कुछ नहीं कह पाई थी। कोई मिलने आ गया और हमारी बातचीत का क्रम भंग हो गया। दुनियावी बातों में भी ईश्वरतत्व ढूँढ़ लेना और लीन हो जाना . . . परमार्थ और हर एक को स्नेह और सम्मान देकर जैसे ईश्वर तत्व के प्रति अपने भाव समर्पित करते थे। कथाकार रंजन भैया नियत समय पर मुझे लेने आ गए। अंकल के साथ कम समय बिता पाने का मलाल लिए उनसे विदाई माँगी। गले मिलते हुए मन ने दुआ की कि फिर मिल सकूँ गले, फिर छू सकूँ चरण और सुन-सीख सकूँ अनकहे शब्द-संदेश। अंकल दरवाज़े से लगे रहे जब तक गाड़ी गली से सड़क की ओर मुड़ नहीं गई। मेरा मन पीछे की ओर भागता रहा, शरीर आगे की ओर। 

अंकल का स्वास्थ्य बिगड़ता रहा, मगर उन्होंने मुझे भनक तक न लगने दी कि वे डायलिसिस पर पिछले चार वर्षों से हैं। 2019 में मिलकर आने के बाद कभी फोन पर बात होती तो मुस्कुरा भर देते, फिर धीरे से कहते, “शरीर ठीक नहीं है, मन चकाचक।” पहले की तरह बात नहीं हो पाती, मगर अंकल यों चले जाएँगे, इसका अनुमान न था। 2020 में बहुत कम बात हो पाई। न के बराबर! अब उनकी हँसी में ठहराव होता। मैं विकल थी, मगर लॉकडाउन और कोरोना के बढ़ते क़दम ने मेरे पाँव बाँध रखे थे, बिहार जाना हो नहीं पाया। 27 जुलाई को फ़ेसबुक पर धमाका हुआ . . . किसी ने अंकल के विदेह होने की ससम्मान पोस्ट डाली थी। 26 जुलाई को मध्यरात्रि में ही अंकल ने आँखें मूँद लीं। 

स्वामी विवेकानंद को देखा नहीं, बापू को भी नहीं! मगर यह देख-समझ और गुन पा रही हूँ कि बापू की तरह अंकल ने अपने जीवन को ही परवर्ती पीढ़ी के लिए संदेश बना दिया। स्वामी विवेकानंद की तरह संसार में रहकर सांसारिक लिप्सा के प्रति अनासक्ति, हर जीव में ईश्वर-दर्शन, कर्मयोग को जीवन में साधना, ज़रूरतमंदों का गुपचुप सहयोग, भक्तों के लिए धर्मशाला, आत्मिक गुणों का सहज आलोक बिखेरना . . . बिखेरते रहना, मानव सेवा को धर्म समझ, उसमें रत रहते हुए भी साधना-उपासना में लीन रहना और अंतत: ईश्वरतत्व के दर्शन और प्रतिपल अनुभूति इसी लोक में पा लेना . . . यह था उनका जीवन! युग कोई भी हो, सद्पुरुष हर युग में अवतरित होते हैं। मैं सौभाग्य को कितना सराहूँ कि ऐसे व्यक्तित्व को जितना जान-समझ पाई, वह भी मुझे गर्वित करने को पर्याप्त है और जीवनशैली सिखाने को भी। अंकल कल भी साथ थे, आज भी हैं। वे हैं और दिशा दिखा रहे हैं . . . बस अब उनके गले नहीं लग पा रही! 

संस्मरण : तेरे लिए तो सबसे बड़ा कमरा; साहित्य कुंज

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मैं ज़िंदा रहूँगी हमेशा… तेरे दिल में

संस्मरण : बेलौस बाबूजी मधुकर गंगाधर की बेलौस बातें ; हिंदी चेतना कनाडा

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