समीक्षा : पुस्तक ‘आखिरी चिट्ठी’; जीवन की त्रासदी को रेखांकित करती कहानियाँ ; प्रतिलिपि

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समीक्षा जितना बचा है मेरा होना, साहित्य कुंज 

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स्त्री – व्यक्तित्व के चिंतन का दस्तावेज़, (समीक्षा -पुस्तक : ‘जो कहूँगी सच कहूँगी’ – कमल कुमार) समकालीन भारतीय साहित्य, 2018

समीक्षा : प्रकाश मनु की चुनिंदा कहानियाँ

विद्वानों ने सच ही कहा है— पुस्तकें मित्र होती हैं,—- सच्ची मित्र। हर एक की— हर उम्र, हर प्रांत, हर धर्म- संप्रदाय के लोगों की सहचरी। सच्ची मित्र मैंने इसलिए कहा क्योंकि साहित्य बाल-सखा की तरह हमें खींचकर,घसीटकर भी सही राह चलाने के लिए विवश करता ही है… हमारे कानों में कहता है — मैं हूँ न तुम्हारे साथ … तुम्हारी कल्पना और यथार्थ का हमजोली ।और सचमुच पुस्तक के रूप में मित्र पाकर हम आनंद और पूर्णता के एहसास से भर उठते हैं । मैंने देखा है रंग-बिरंगे चित्रों से भारी पुस्तक के प्रति शिशु का आकर्षण – यहीं से शुरू हो जाती है मित्रता; यहीं से शुरू होता है व्यक्तित्व –गठन और इसमें बाल साहित्य महती भूमिका निभाता है

वरिष्ठ कथाकार श्री प्रकाश मनु बच्चों के भी सुपरिचित कथाकार हैं, जिनकी कहानियाँ बाल मन को गुदगुदाती तो कभी कुछ सिखाती, नई दिशा देती चलती है। बच्चों के लिए की जानेवाली रचना, चाहे वह किसी विधा में हो, स्वयम् को उस अवस्था में पहुंचाए बिना नहीं लिखी जा सकती और बाल साहित्य वही रच सकता है जिसने अपने अंदर पलते बच्चे को सदैव जीवंत रखा हो … वही भोलापन, वही मासूमियत ,वही निर्दोषता ॥ तभी शब्द अपने अबोध मन के साथ कागज पर उतर पाते हैं और तितली बनकर पंख फड़फड़ाते हैं। इस पुस्तक में कुल दस कहानियाँ हैं ।सभी अपनी-अपनी छटाएँ बिखेरती हुईं ।बालसुलभ मन और कर्म के साथ –साथ उन्हें सीख देने की नई कोशिश इनकी कुछ कहानियों में झलकती है। इनमें मास्टरजी, दोस्ती का हाथ, जमुना दादी, अहा रसगुल्ले, झटपट सिंह और मिठाईलाल का नाम लिया जा सकता है।लेखक ने बच्चों की शरारतों के लिए कहीं भी दंड का प्रावधान नहीं रखा। बच्चे हैं शरारते करेंगे ही; संवेदनशील हैं,अपराध-बोध से भरेंगे भी, किन्तु यहाँ बड़ों का फर्ज़ क्या है? वे बच्चों को गलतियों के लिए दंडित करें, उन्हें फटकारें, तिरस्कृत करें…. हमजोलियों या सगे-संबंधियों के सामने उन्हें लज्जित करें या उनकी बाल-सुलभ गलतियों या गलत दिशा में बढ़े उनके कदमों को रोकने के लिए मूल कारणों की तह में जाकर उनका निदान करें॥ वह भी स्नेह के साथ। बाल मनोविज्ञान भी यही कहता है कि बच्चों के व्यवहार का प्रतिकार ना करें।बच्चों की भावना समझने के लिए उस स्तर तक उतरें फिर देखें कि उनके व्यक्तित्व को कैसे और कितना निखारा जा सकता है। प्रकाश मनु की कहानियाँ साबित करती हैं कि वे बाल-मन में पैठकर रचना करते हैं मैंने एक बात जो महसूस की …जिसकी वर्तमान समाज में ज़रूरत भी है …. वह है, बच्चों के प्रति हम वयस्कों के व्यवहार की रूपरेखा ।प्रकाशजी के प्राय: सभी वयस्क पात्र क्षमाशील,धैर्यवान और मार्गदर्शक हैं। उनकी संवेदना बच्चों को स्पर्श करती है,स्नेहिल व्यवहार बच्चों को अच्छा बनने और बना रहने पर विवश करता है, फिर वह वयस्क पात्र मास्टरजी हो,जमुना दादी हो,मिठाई के शौकीन बिरजू की माँ हो या रसगुल्ले के शौकीन ननकू की माँ ।लेखक ने यहीं गुण दोस्ती के मुख्य पात्र अनुराग में भी आरोपित किए हैं।

मास्टरजी’ कहानी कुछ पंक्तियाँ देखें:

प्रशांत:  मास्टरजी, मेरे मन में तो अंधेरा था। आपने दीया जला दिया।अब तो सब ओर प्रकाश ही प्रकाश है।

मास्टरजी : अंधेरा भी तुम्हारे भीतर ही था और प्रकाश भी तुम्हारे भीतर से फूटा है ।अपने गाइड तुम खुद हो प्रशांत।

“ प्रशांत के भीतर-बाहर जो उजाला फूट पड़ा था ,वह तो कभी खत्म हो ही नहीं सकता था ।आज उसने सचमुच मन के दीए जलाए थे।शायद इसलिए मास्टर अयोध्या बाबू के घर से लौटते हुए भी उसे लग रहा था ,जैसे वे उसके साथ-साथ चल रहे हैं।“

ये पंक्तियाँ वयस्क-व्यवहार को तय करती हैं ।बाल-मन का अपने माता-पिता, अभिभावक, मित्र व गुरुजन के व्यवहार के प्रति आश्वस्त होना उन्हें निश्चिंतता का भाव-बोध देता है,वे स्वयम् को अकेला महसूस नहीं कराते…विशेषकर जब माता-पिता दोनों नौकरीपेशा  हो …. इसी प्रकार अन्य कहानियाँ, जैसे डाक बाबू का प्यार, मुनमुन ने बनाई घड़ी परोपकार और घमंड ना करने की शिक्षा देती है, लेखक की विशेषता है कि उनकी शिक्षा कही भी थोपी हुई प्रतीत नहीं होती, भाषाशैली  सहज और रोचक है,बच्चे अवश्य ही इस पुस्तक का आनंद उठाएंगे।मेरा तो यह मानना है कि प्रौढ़ साहित्य बालोपयोगी भले न हो, किन्तु बाल साहित्य का पठन-पाठन सबके लिए उपयोगी है। इससे परिवार व समाज के वयस्क बच्चों के भाव व व्यवहार को अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से समझ सकेंगे ।ये कहानियाँ व्यस्त माता-पिता को बच्चों से जोड़े रखने का सरल और सशक्त माध्यम है।प्रकाश मनु को बधाई और साधुवाद।

हिंदी चेतना (कनाडा में प्रकाशित)

समीक्षा : पवित्र और अमर प्रेम की झलक दिखाती  गुलेरी जी की कहानियाँ- पुस्तक संस्कृति 2017

 

 

आरती स्मित

पुस्तक : चंद्रधर शर्मा गुलेरी की संकलित कहानियाँ

संकलन : कृष्णदत्त पालीवाल

प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ,भारत

मूल्य     :   रु. 110

 

 

पवित्र प्रेम के चितेरे कथाकार चंद्रधर शर्मा की अमर प्रेमकथा ‘उसने कहा था’ ने हिन्दी साहित्य में उन्हें विशिष्ट स्थान दिलाया। यह प्रेम उनकी प्राय: सभी कहानियों में रह-रहकर उभरता है  जिनमें ‘बुद्धू का काँटा’, ‘सुखमय जीवन’ और अपूर्ण कहानी ‘हीरे का हीरा’ शामिल हैं। ‘हीरे का हीरा’ ‘उसने कहा था’ का दूसरा भाग -सा प्रतीत होता है किंतु भाव ,भाषा, शैली और शिल्प  के स्तर पर  जो उठान ‘उसने कहा था’ में है, उसका ‘हीरे का हीरा ‘ में अभाव है। कई बार कोई रचना पहले आरंभ होकर भी अपनी यात्रा बहुत बाद में पूरी कर पाती है, कई बार यह यात्रा लेखक को आत्मतुष्टि न दे पाने की स्थिति में अधूरी ही रह जाती है। इस कहानी के साथ भी संभवत: कुछ ऐसा हुआ हो!

गुलेरी जी की उपर्युक्त तीनों पूर्ण  कहानियों में कुछ बातें समान हैं, जैसे कि पुरुष पात्र द्वारा प्रेम की उत्कट अनुभूति और प्रेम-निवेदन ,अकथ-असह्य व्यग्रता और  स्त्री पात्र द्वारा पति के प्रति पूर्ण समर्पण। उनके प्रेम में कहीं भी देह की गंध नहीं है। पत्नी के  प्रेम का उत्कृष्ट दृष्टांत ‘हीरे का हीरा’ है।

 

‘उसने कहा था’ में प्रेम का उदात्त और सात्विक रूप ही पात्र  लहनासिंह को नायकत्व प्रदान करता है, परोक्षत: लहनासिंह  सूबेदारिन की स्मृति में 25 वर्ष बाद,उम्र के तीसरे पड़ाव में भी बना हुआ है, यह स्त्री प्रेम की गूढ़ता का परिचायक है। तभी एक झटके में वह जमादार लहनासिंह को पहचान जाती है और उसे ‘तेरी कुड़माई हो गई…धत्त– देखते नहीं रेशमी बूटों वाला सालू’ वाक्य-मात्र से बचपन के वे सारे मधुर  प्रसंग याद दिला देती है।  । लेखक ने भारतीय स्त्री के आदर्श प्रेम को अपनी सभी कहानियों में स्थापित किया है। यहाँ भी सूबेदारिन पति और पुत्र के जीवन की कामना करती है, मगर  इस कामना की डोर सिर्फ़ लहनासिंह को सौंपती है– बचपन में उग आए भावों का चरम है सूबेदारिन का यह  विश्वास कि लहनासिंह उसके कहे की लाज रखेगा और लहनासिंह का उस विश्वास पर कुर्बान हो जाना … अंतिम घड़ी में उन मधुर यादों को जीना । प्रेम का यह अस्फुट रूप ही कहानी को शीर्ष तक ले जाता है।

इस कहानी के ताने- बाने में  लेखक ने केवल प्रेम ही नहीं बुना, अमृतसर के   बंबूकार्ट में इक्केवालों की मीठी बोली को भी गूँथा है जिससे आरंभ से ही कहानी सरस हो उठी है, साथ ही साथ सीमा पर तैनात भारतीय जवानों की ज़िंदादिली को भी नगीने की तरह सजाया है। हास्य-व्यंग्य का पुट भाषा की ऊबड़खाबड़ ज़मीन को चिकनाई देता है। स्थानीय बोलियों का प्रयोग,  कहानी की कलात्मकता को नया आयाम देता है।

‘बुद्धू का काँटा’ संक्षिप्त उपन्यास का कलेवर लिए है। यहाँ मूल  कहानी में समाविष्ट अतिरिक्त कहानी नवाब के खानसामे की है, जो सामाजिक असमानता और शोषक -प्रवृत्ति और शोषित -पीड़ा की मीमांसा करती है। कहानी का नायक रघुनाथ के माध्यम से लेखक ने एक ओर सरल व्यक्ति की   स्त्री मंडली में हास्यास्पद स्थिति बनते दिखलाया है, वहीं यह भी कि चतुर और सयानी स्त्री भी पत्नी धर्म निभाती हुई पति को अपने से ऊँचा स्थान देकर खुश होती है।कौमार्य में  बुद्धू  रघुनाथ से छेड़छाड़ करने वाली स्वतंत्र, बहादुर चुलबुली लड़की जब अचानक उसे पति के रूप में पाती है तो हतप्रभ रह जाती है ” अब इस चक्की में ऐसे ही पिसना है। जनम भर का रोग है; जनम भर का रोना है।”  पति के  समक्ष समर्पण ही स्त्री का भाग्य  है। प्रेम निवेदन करते रघुनाथ द्वारा पास खींचना और स्त्री का पहले के उपहासों के बदले क्षमा याचना करते हुए ढह जाना इसी समर्पण का द्योतक है। कहानी लंबी होने के कारण कई अनावश्यक प्रसंग भी शामिल हैं। भाषा से खेलना और हास्य- व्यंग्य का तड़का लगाना गुलेरी जी की लेखनशैली का एक हिस्सा है, जो प्राय: सभी कहानियों में उपलब्ध है।

‘सुखमय जीवन’ साधारण कहानी है जिसमें व्यंग्य का पुट अधिक है। यों कहें कि कहानी में कसाव लाने पर यह व्यंग्य-कथा बन सकती थी। झोलाछाप लेखक पर गुलेरी जी ने शर-संधान किए हैं। प्रेम प्रसंग में, यहाँ भी नायक नायिका कमला के लिए विह्वल हो उठता है और कमला के पिता से वाद-विवाद करता है , किंतु विवाह की बात पक्की होने के बाद ही कमला उस पर आसक्त होती है। लेखक ने कथानायिका में सदैव भारतीय नारी का आदर्श चरित्र दिखाने का प्रयास किया है।

‘घंटाघर’ लेखक की आरंभिक कहानी है और ‘ धर्मपरायण रीछ’  प्रतीकात्मक कहानी है जिसमें साम्राज्यवाद पर व्यंग्य है।

गुलेरी जी की भाषा पर जो पकड़ है, हास्य और व्यंग्य के संतुलन को बनाए रखने की जो दृष्टि है और इनके बीच अपनी बात कह देने का जो अंदाज़ है, वही उन्हें अनुपम बनाता है। बतौर कथाकार उन्होंने परंपरागत साहित्य की धरती पर नवचिंतन और प्रयोग के  बीज बोए। वे कुछ समय और होते तो साहित्य कुछ अधिक नए कलेवर में होता!

(पुस्तक संस्कृति के अप्रैल-जून 2017 अंक में प्रकाशित)