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          लव यू

मैं अपनी नरम मुलायम दुनिया  में मरोड़ा जाने  लगा हूँ। लगता है,  मेरी साँस बंद हो जाएगी, वह नली , जो मुझे ख़ुराक देती है, मेरे गले में कसने लगी है। बाहर अज़ीब -सा शोर है। किसी के रोने -चिल्लाने की आवाज़ है। यह आवाज़ मुझे रुला रही है, मुझे झकझोर रही है। मैं चैन से सो नहीं पा रहा। — ये कैसी आवाज़?— “मैं इसे जन्म दूँगी, चाहे जो हो जाए।”

“दिमाग ख़राब है तुम्हारा ? हम दुनिया को मुँह दिखाने के लायक नहीं रहेंगे। तेरे साथ जो हुआ, उसे हादसा समझ कर भूल जा। इसी में सबकी भलाई है।”

“और इस नन्ही जान को मार दूँ, जिसका कोई कसूर नहीं। अरे मारना है तो उस हैवान को मारो।”

” चुप रहना सीख! हमने डॉक्टर से बात कर ली है, तुम्हारी जान को कोई ख़तरा नहीं होगा।”

“मैं इसे जन्म दूँगी।”

“और जब दुनिया बाप का नाम पूछेगी, तब क्या बताएगी। ”

“वाह रे मेरा देश! वाह रे देश के नियम -कानून! और आपकी संस्कृति!! एक तरफ तो माँ को सबसे पूज्य मानते हैं। दूसरी तरफ़ माँ बनने से रोकते हैं, महज इसलिए कि पिता का नाम नहीं दिया जा सकता। क्या इससे स्त्री के गर्भ में पलते भ्रूण/शिशु को कोई फ़र्क पड़ता है कि उसका बाप कौन है? या वह दुनिया में है या नहीं? क्या इससे अपनी कोख में पलती जान के प्रति स्त्री की ममता और उसके लिए सहती पीड़ा में कोई कमी आती है कि वह स्त्री कुंवारी है या किसी की ब्याहता? वह पति की प्रेम और वासना की भेंट चढ़ी है या किसी दरिंदे की शिकार बनी या लिव इन रिलेशन को स्वीकारा है ? अगर सारे रिश्तों में  ‘माँ’ पूज्य है, तो उसे हर हाल में पूज्य होना चाहिए। और  स्त्री के लिए  पति नाम के जीव के वर्चस्व की ज़रूरत पुरुष समाज ने बनाई है, ईश्वर ने नहीं।”

“तू क्या समाज से बाहर है?”

“यदि समाज मानसिक रूप से विकलांग है तो हाँ! ”

“तेरा दिमाग ख़राब हो गया है। क्या सनक सवार हुई है तुझे ! क्या तुझे किसी की परवाह नहीं, किसी का भय नहीं?”

“माँ ! तुम तो स्त्री हो, माँ हो, क्या तुम एक माँ की ममता, उसकी पीड़ा नहीं समझ रही। क्या फ़र्क पड़ेगा, अगर मैं मर गई तो?”

“निशा!” एक चीख गूँजी।

“सोचो, माँ! पिताजी की पत्नी, भार्गव परिवार की बहू बनकर नहीं, एक स्त्री, एक माँ बनकर सोचो। संबंधों के प्रति  ये अन्याय क्यों? शिशु औरत के गर्भ में पलता है, उससे जीवन पाता है, फिर उसकी ज़िंदगी का फैसला किसे लेना चाहिए? उस शिशु के साथ पहचान -नाम किसका होना चाहिए?— यह तो सोचो, अगर पिता के नाम की अनिवार्यता ख़त्म हो जाए तो कितने भ्रूण गर्भ में मारे जाने से और कितने नवजात  कूड़े की  ढेर पर फेंके जाने से बच जाएँगे! कितने अनाथ कहलाने से और सभ्य समाज की अमानुषिकता सहने से ! ये ही बच्चे कल के अपराधी बनते हैं।”

एक गहरा सन्नाटा है। अब कोई आवाज़ नहीं आ रही। मेरे गले का फंदा अब ज़रा ढीला पड़ने लगा है। पेट फूल-पिचक रहा है। शायद, वह तेज़ साँस ले रही है। शायद, वह थक गई है। —मगर वह क्या कह रही थी, क्या मेरे बारे में कुछ?? ओह! क्या मैं उसे कभी नहीं देख पाऊँगा?? मेरी नींद उड़ गई है। मैं छटपटा रहा हूँ, यहाँ से बाहर निकलना चाहता हूँ, उसे देखना चाहता हूँ, उससे कुछ जानना चाहता हूँ — एक बार उसे छूना चाहता हूँ, जो मुझे अबतक बचाए है।

 

मैं शिथिल पड़ा हूँ। डरा हुआ हूँ। एक हाथ मेरी दुनिया के ऊपर फिरता है। स्नेह- भरा हाथ! वह बुदबुदा रही है, शायद मुझसे! हाँ, मुझसे ही कुछ कह रही है — “मेरे बच्चे, तुम डरना नहीं! मैं किसी  को तुम्हारा जीवन छीनने नहीं दूँगी। चाहे, उसके लिए मुझे कुछ भी करना पड़े– कुछ भी।” उस आवाज़ में ओज है, साहस है, संकल्प है। अब मैं निश्चिंत हूँ। उससे मुझ तक पहुँचती हर ख़ुराक मुझे जीवन दे रही है और मैं मज़बूत हो रहा हूँ …शरीर से और मन से भी — उसकी तरह।

 

 

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लघुकथा : थैंकू भैया Posted: February 1, 2018

http://laghukatha.com/%E0%A4%A5%E0%A5%88%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A5%82-%E0%A4%AD%E0%A5%88%E0%A4%AF%E0%A4%BE/थैंकू भैया

वह माँ के साथ जबरन पाँव घसीटती चली जा रही थी। उसकी नजरें बार-बार सड़क के दोनों ओर सजी दुकानों पर जा-जाकर अटक जातीं। मन हिलोरें मारता कि माँ से कुछ कहे, मगर उसे डर था कि माँ से अभी कुछ कहने का मतलब यहीं बीच सड़क पर मार खाना होगा। यों भी , आज माँ का मूड कुछ ठीक नहीं। कल मालकिन ने ताकीद की थी, देर न करना, मगर देर हो ही गई। इसलिए काम में हाथ बँटाने को माँ उसको भी जबरदस्ती साथ ले जा रही थी। अबीर, गुलाल के रंग-बिरंगे पैकेट उसे बुलाते, तरह-तरह के रूपों वाली पिचकारियाँ, गुब्बारे सब उसे इशारा करते-से लगते। वह टूटी चप्पल घसीटती अधमरी-सी चलती रही।

‘‘अरी, चल ना! क्या हुआ, पाँव के छाले पड गए का……एक तो ऐसे ही एतना देर हो चुकी, जाने मालकिन का पारा केतना गरम होगा? परवी नै दी तो का फगुआ का बैसाखी। सारी भी तो दे के खातिर बोले रही, बिटवा का उतारन भी। चल न, तुमको साथ काम करते देखेगी तो मन पसीजेगा जरूर, कुछ-न-कुछ दइए देगी।’’

माँ बड़बड़ाती हाथ खींचती चलती रही।

गली के मोड़ पर पहले पाँचमंजिला मकान मकान मालकिन का ही तो है। हे भगवान् ! उसका बेटा घर में न हो! केतना तंग करता है हमको। नौ वर्षीया निक्की ने मन-ही-मन ईश्वर को याद किया। कभी मन्दिर गई नहीं, भगवान् स्त्री हैं या पुरुष, उसको भ्रम बना हुआ है। मगर जब मुसीबत नजर आती है, वह झट-से भगवान् को पुकार लेती है। ‘मालकिन बोली की कड़ी थी, मगर उसे कभी डाँटा नहीं। माँ को जरूर डाँटती कि ‘इसे स्कूल भेजा कर। घर में बिठाकर अपने जैसा बनाएगी क्या?’

उसे मालकिन से डर नहीं लगता मगर उसके बेटे ओम से लगता है। वह हमेशा उसे छेड़ता रहता है। उससे थोड़ा बड़ा है तो का? अकड़ू कहीं का!’

चप्पल उतारकर अभी बैठक में कदम रखा ही था कि ओम दिख गया। वह सकपकाती हुई माँ की बगल जा खड़ी हुई।

‘‘जा, सीढ़ियों पर झाड़ू लगा दे, हम आते हैं कमरा में झाड़ू लगाकर।’’

वह हिली नहीं, सकपकाई-सी खड़ी रही।

‘‘अरी का हुआ, सुनाई कम देता है का?’’ माँ धीमी आवाज में मगर रोश में बोली।

‘‘माँ वो-वो…..’’ वह हकला गई।

‘‘चल जा, जल्दी काम कर’’ कहकर माँ अन्दर कमरे में चली गई।

ओम चुपचाप कब उसके पीछे खड़ा हो गया, उसे पता ही न चला। अचानके उसे पाकर वह भीतर तक सिहर गई। ओम का हाथ पीछे था।

‘अब फिर यह मेरे बाल खींचेगा या चिकोटी काटेगा। हे भगवान्, का करें? आज तो चिल्लाकर रोने लगेंगे हम, मालकिन को पता चल जाएगा कि…’ ‘‘निक्की’’ वह आगे सोच पाती, तभी ओम ने धीरे-से उसे पुकारा और हाथ आगे बढ़ा दिया। उसके हाथ में रंग, अबीर-पुड़िया की थैली और प्यारी-सी पिचकारी थी।

‘‘यह तुम्हारे लिए।’’

‘‘नहीं-नहीं हमको नहीं चाहिए।’’ वह छिटककर दूर जा खड़ी हुई, तभी मालकिन कमरे में आ गई।

’’ ले लो बेटा! भैया ने तुम्हारे लिए खरीदा है।’’

वह हैरान होकर कभी रंग और पिचकारी देखती, कभी ओम और मालकिन को। ‘तो क्या ओम छोटी बहन समझकर उसे तंग करता था, यही बात अच्छे-से भी तो समझा सकता था, डराकर रख दिया हमको।’ वह मन-ही-मन बुदबुदाई। साँवले चेहरे पर मुस्कान खिली और गुलाबी रंग निखर आया। होंठ हिले और बोल फूटे, ‘‘थैकू भैया!’’

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लघुकथा : थैंकू भैया-साहित्य कुंज

वह माँ के साथ ज़बरन पाँव घसीटती चली जा रही थी। उसकी नज़रें बार-बार सड़क के दोनों ओर सजी दुकानों पर जा-जाकर अटक जातीं। मन हिलोर मारता कि माँ से कुछ कहे, मगर उसे डर था कि माँ से अभी कुछ कहने का मतलब यहीं बीच सड़क पर मार खाना होगा। यों भी, आज माँ का मूड कुछ ठीक नहीं, कल मालकिन ने ताकीद की थी, देर न करना, मगर देर हो ही गई, इसलिए काम में हाथ बँटाने को माँ उसको भी ज़बर्दस्ती साथ ले जा रही थी। अबीर~, गुलाल के रंग-बिरंगे पैकेट उसे बुलाते, तरह-तरह के रूपों वाली पिचकारियाँ, गुब्बारे सब उसे उसे इशारा करते से लगते। वह टूटी चप्पल घसीटती अधमरी सी चलती रही।

“अरी,चल ना! का हुआ, पाँव में छाले पड़ गए का…. एक तो ऐसे ही एतना देर हो चुका, जाने मालकिन का पारा केतना गरम होगा? परवी नै दी तो का फगुआ का बैसाखी। सारी भी तो दे के खातिर बोले रही, बिटवा का उतारन भी। चल न तुमको साथ काम करते देखेगी तो मन पसीजेगा जरूर, कुछ न कुछ दइए देगी।”

माँ बड़बड़ाती हाथ खींचती चलती रही।

“गली के मोड़ पर पहले पचमंज़िला मकान मालकिन का ही तो है। हे भगवान! उसका बेटा घर में न हो! केतना तंग करता है हमको।” नौ वर्षीया निक्की ने मन ही मन ईश्वर को याद किया। कभी मंदिर गई नहीं, भगवान स्त्री हैं या पुरुष, उसको भ्रम बना हुआ है, मगर जब मुसीबत नज़र आती है,वह झट से भगवान को पुकार लेती। मालकिन बोली की कड़ी थी, मगर उसे कभी डाँटा नहीं, माँ को ज़रूर डाँटती कि इसे स्कूल भेजा कर! घर में बिठाकर अपने जैसा बनाएगी क्या?” उसे मालकिन से डर नहीं लगता मगर उसके बेटे ओम से लगता है, वह हमेशा छेड़ता रहता। उससे थोड़ा बड़ा है तो का? अकड़ू कहीं का!”

चप्पल उतार कर अभी बैठक में क़दम रखा ही था कि ओम दिख गया। वह सकपकाती हुई माँ के बगल जा खड़ी हुई।

“जा सीढ़ियों पर झाडू लगा दे, हम आते हैं कमरा में झाड़ू लगाकर।” वह हिली नहीं, सकपकाई सी खड़ी रही रही।

“अरी का हुआ, सुनाई कम देत है का?” माँ धीमी आवाज़ में मगर रोष में बोली।

“वो – वो- ” वह हकला गई।

“चल जा, जल्दी काम कर,”कह कर माँ अंदर कमरे में चली गई। ओम चुपचाप कब उसके पीछे खड़ा हो गया, उसे पता ही न चला। अचानक उसे पाकर वह भीतर तक सिहर गई। ओम का हाथ पीछे था। “अब फिर यह मेरे बाल खींचेगा या चिकोटी काटेगा, हे भगवान का करें? आज तो चिल्ला कर रोने लगेंगे हम, मालकिन को पता चल जाएगा कि ….”

“निक्की,” वह आगे सोच पाती, तभी ओम ने धीरे से उसे पुकारा और हाथ आगे बढ़ा दिया। उसके हाथ में रंग और अबीर पुड़िया की थैली और प्यारी-सी पिचकारी थी।

“यह तुम्हारे लिए।”

” नहीं-नहीं हमको नहीं चाहिए।” वह छिटककर दूर जा खड़ी हुई, तभी मालकिन कमरे में आ गई ।

“ले लो बेटा! भैया ने तुम्हारे लिए ख़रीदा है।” वह हैरान होकर कभी रंग और पिचकारी देखती, कभी ओम और मालकिन को। “तो क्या ओम उसे छोटी बहन समझ कर उसे तंग करता था, यही बात अच्छे से समझा भी सकता था, डरा कर रख दिया हमको” वह मन ही मन बुदबुदाई। साँवले चेहरे पर मुस्कान खिली और गुलाबी रंग निखर आया। होंठ हिले और बोल फूटे, “थैंकू भैया!”

साहित्य कुंज के जून 2017 के अंक में प्रकाशित

लघुकथा : मानवता; साहित्य कुंज

वह कीचड़ में गिरी लिथरी पड़ी रही। नज़रें राहुल को ढूँढ रही थीं, मगर राहुल का कहीं पता न था। वह उसे छोड़ कब का आगे निकल चुका था, इतनी तेज़ी में कि पलटकर देखने की भी ज़रूरत नहीं समझी। उसकी आँखों में आँसू आ गए। चोट के दर्द के कारण चाहकर भी उठ नहीं पा रही थी। रात के नौ बज चुके। भीड़-भाड़ और गाड़ियों की चिल्ल-पों के साथ निरंतर आवाजाही से उसके सिर में दर्द हो रहा था। वह राहुल का हाथ थामकर सड़क पार करना चाहती थी, लेकिन राहुल उसे झिड़की देता हुआ आगे बढ़ गया था और वह लड़खड़ाते पैरों से राहुल के पीछे-पीछे चलती हुई कब बहुत पीछे रह गई, उसे पता ही न चला। जबतक सँभलती, पैर कीचड़ में धँस चुके थे और वह धम्म से जा गिरी थी।

वह चीखना चाहती थी, मगर कंठ अवरुद्ध हो गया था। दिमाग़ चक्कर खाने लगा कि जिसके लिए घर-परिवार, जात-बिरादरी यहाँ तक कि वह प्रदेश ही छोड़ दिया, वही राहुल अपने परिवार और बिरादरी की ख़ातिर उस खून के आँसू रुला रहा है। उसका प्रेम क्रूर होने लगा और बात-बात पर आक्षेप, व्यंग्य और लांछन लगाना राहुल के लिए आम बात हो गई। अभी भी उसकी हालत को राहुल ने बहाना समझकर झिड़क दिया और…। गिरने से शरीर पर लगी चोट से कहीं अधिक मनोव्यथा उसे पीड़ित करने लगी। दस मिनट बीते न होंगे कि एक नवयुवक ने झुककर उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया और स्नेहिल शब्दों में कहा, “आप घबराएँ नहीं। मैं आपको घर तक छोड़ दूँगा।”

“मगर मैं…”

वह आगे बोल न सकी। नवयुवक ने अपने कपड़े गंदे होने की परवाह किए बिना उसे सहारा देकर उठाया और सड़क पार कराता हुआ उसे आश्वस्त करता रहा कि वह बड़ी दुर्घटना से बच गई और इसके लिए उसे ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए। वह, उलीचे हुए ज़ख़्म पर स्नेहिल शब्दों का मरहम पाकर आश्वस्त होने लगी। उसने ईश्वर को मन ही मन नमन किया। रिश्तों की व्यावहारिकता पर उसकी सोच गहरी होती, इतने में युवक ने इशारे से रिक्शा बुलवा दिया और उसे सहूलियत से बिठाते हुए फिर पूछा, “आप अकेली चली जाएँगी ना !”

“हाँ” से अधिक वह फिर बोल ना पाई। इतनी भाव विह्वल हो गई कि न नाम पूछा, ना धन्यवाद दिया। युवक उसकी माटी सनी हथेलियों को थपथपाते हुए कहा, “टेक केयर” और देखते ही देखते आँख से ओझल हो गया। रास्ते भर वह सोचती रही कि यह क्या था— एक साधारण दुर्घटना; एक मानसिक अव्यवस्था का परिणाम या उस नवयुवक के रूप में मानवता का नया रूप? राहुल जैसे सभ्य और लब्धप्रतिष्ठित लोग जिसके समूल नष्ट होने की बातें करते हैं।

                                                                                                                                   डॉ. आरती स्मित

साहित्य कुंज के जून 2017 के अंक में प्रकाशित