मातृदिवस का बढ़ता प्रचलन और माँ

माँ शब्द महज शब्द नहीं ,एक भरा-पूरा एहसास है। एहसास है ममत्व का, एहसास है प्रतिकूल परिस्थिति में मिलनेवाले हौंसले का, एहसास है संघर्ष की तपिश से झुलसते मन को मिलनेवाली शीतल छाया का। माँ होती है तो शिशु की किलकारी गूँजती है;बचपन की चपलता होती है। माँ होती है तो घर- बाहर एक सुरक्षा-बाड़ होता है,जहाँ भावनाएँ पलती हैं, विचार गहराते हैं,संकल्प मजबूत होते हैं। विपरीत समय हो या परिस्थिति , माँ सबसे लड़ जाती है, मगर बच्चे को टूटने- बिखरने से बचाती है। माँ की दुनिया में रोशनी का दूसरा नाम संतान है।

वही माँ जब उम्र की ढलान से उतरते हुए साँझ में बदल जाती है तो कभी धीरे-धीरे,कभी अनायास उसकी सतरंगी आभा गोधूलि में बदलने लगती है।धूसर/बेरंग होने लगती है–कभी सोचा है,क्यों? क्यों रात की कालिमा उसकी बची-खुची साँसों पर ग्रहण लगाने लगती है? जिन बच्चों को सूरज,चाँद,आँखों का तारा मानती है, वे सूरज,चाँद -सितारे माँ की ढलती साँसों को अपने उजास से क्यों नहीं भर पाते?क्यों उनके मन पर अँधेरे की परत चढ़ने देते हैं? क्यों उन्हें आश्वस्त नहीं कर पाते कि वे हैं–उनके पास,उनके साथ, कभी कम न होनेवाला प्रेम और वात्सल्य का वही छलछलाता कटोरा लिए।

     बूढ़ी माँ की बुझी आँखों में चमक उभर आती है जब संतान सामने होती है; जब भरा-पूरा परिवार उसे वही स्नेह और सम्मान देता है,जिसकी वह हक़दार है। खरीदे तोहफ़े जी नहीं जोड़ते, उन्हें तो अपने बच्चों से आत्मीयता का वही सुरक्षा-बाड़ चाहिए, वही शीतल चाँदनी और वही गुनगुनी धूप…छोटी-छोटी खुशियाँ बुनते नन्हें-नन्हें पल। उँगली पकड़कर जिसने चलना सिखाया,उनका हाथ  थामे रहें तो हर दिन मातृदिवस  होगा।

      स्नेह-सम्मान का एक दीया अपनी माँ के लिए और एक अपने बच्चों की माँ के लिए जलाए रखेंगे और बच्चों को भी प्रेरित करेंगे तो किसी घर का कोई कोना कभी अँधेरा नहीं होगा। न कोई कमरा बुजुर्ग माँ के अकेलेपन के सीलन से भरा होगा और न ही वृद्धाश्रम जाने  के लिए डगमगाते क़दम विवश होंगे।

आमीन!💐

मातृदिवस की शुभकामनाएं!💐💐💐

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जिसने ख़ुद को पा लिया

जिसने ख़ुद को पा लिया, उसे कुछ और पाने की लालसा नहीं रहती। वह अपने आप में भरा-पूरा होता है। वह स्वयं को स्वयं से भरता रहता है… निरंतर जैसे कोई भीतरी शक्ति नसों में बहती रहती हो; कोई दिव्य आभा भीतर ही भीतर बढ़ती-फैलती जा रही हो और एक बिंदु पर आकर उसका विस्तार भीतर -बाहर हर जगह व्याप्त होने लगे। चारों ओर उजास ही उजास, प्रकाश ही प्रकाश।एक अडिग विश्वास कि यह जो परम ऊर्जा पुंज है, जिसे ईश्वर,अल्लाह, गॉड, सुप्रीमो, सर्वशक्तिमान, सुपर एनर्जी आदि-आदि कहते हैं, जिस ऊर्जा से सारे ब्रह्मांड बने हैं। हर ब्रह्मांड की आंतरिक संरचना एक ही जैसी है। जो कुछ हमें बाहर, अपने आसपास या अंतरिक्ष में दिखाई देता है, हमारे बाहरी और भीतरी शरीर की बुनावट भी वैसी है। वही ऊर्जा सब में मौजूद है जिन्हें हम प्राकृतिक, नैसर्गिक या सुपर पावर के अंश के रूप में मान लेते हैं। कण-कण में वही ऊर्जा गति प्रदान करती है। गति है तो जीवन है।जीवन है तो सृष्टि है।सृष्टि है तो परिवर्तन है। परिवर्तन है तो विकास है,विकास है तो एक बिंदु पर अवसान भी है और अवसान है तो नव सृजन भी। यही चक्र निरंतर गतिमान है। यह नश्वर है तो शाश्वत क्या है? शाश्वत है वही परम ऊर्जा और उससे निकल, अलग अलग रूपाकार लेती लघु ऊर्जाएं… यों कहें कि जिसका एक -एक कण हम सब हैं–अपने ऊपर नश्वर जीवन ओढ़कर अवसान से नवसृजन और सृजन से अवसान की प्रक्रिया से बार-बार गुजरते हुए, जब तक कि स्वयं को परम ऊर्जा की दिव्यता के साथ शाश्वत रूप में जान नहीं लेते और जब जान लेते हैं और कुछ जानने-समझने की ज़रूरत ही नहीं रह जाती है। नश्वरता स्पष्ट दिखने लगती है,जो सृष्टि चक्र को चालयमान रखने के लिए ज़रूरी है।इसलिए संसार की नश्वरता को कोसे बिना, उससे भागे बिना उससे मुक्त होना ही स्वयं को स्वयं से भरते जाना है… पूर्णता की ओर बढ़ते जाना है।

स्वयं को जानना सत्यरूपी परमेश्वर को पाना है

गाँधी होना

क्या है गाँधी होना?
क्या मानवता का पर्याय होना है?
अपनी कमजोरियों को समझना और उस पर विजय प्राप्त करना भी गाँधी होना ही है। सत्य का खोजी होना, सत्य के अद्भुत प्रयोगों में लीन होना, उसे मानवता के उत्कर्ष में पा लेना,पीड़ित जन  में ईश्वर के दर्शन करना भी तो गाँधी होना ही है। सेवा, समर्पण और सम्मान,प्रेम और सहिष्णुता, समता और जीवन -मूल्यों को पोषित करती नैतिकता से ख़ुद को लबालब भर लेना भी गाँधी होना है।
और  गाँधी होना है – सर्वसुख, भोग, लिप्सा त्यागकर, कर्मयोगी महात्मा बन जाना मगर अकेले ईश्वरीय आनंद पाने की इच्छा छोड़कर , भीड़ की सोई चेतना को जगाने,उसे उसकी शक्ति और स्वभाव से सही परिचय कराने और उसी भीड़ के हाथों तिल-तिल जलना,तड़पना और इच्छा मृत्यु का आत्मिक बल पाना; स्थूल देह से मुक्त होकर सत्य-अहिंसा का पर्याय बन जाना; नफ़रत के प्रदूषित वातावरण में सौहार्द का विचार बन जाना; बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग को निजी जीवन में उतारना ,उसकी परीक्षा करना और अपनी सफलता-असफलता का निष्पक्ष आकलन करना…..

गाँधी होना किसी का अनुगामी बनना नहीं, औरों के सद्गुण स्वयं में भरते हुए आत्मरूप को विकसित करना है। गाँधी होना अपने आप में उन आत्मगुणों को तलाशना, पाना और औरों को  आत्मिक गुणों से जोड़ने,उसे विकसित करने का प्रयास करना है ।  प्रेम, शांति, आत्मशक्ति, करुणा,दया, सुख, आनंद से भरे रहने के लिए  सत्य,अहिंसा,त्याग, समतामूलक दृष्टि, जनहित में चिंतन-मनन, निष्काम कर्म करना है।
        गाँधी होना देह का मर जाना और जीवन का अमर हो जाना है। इतिहास गाँधी के सुकृत्यों को नष्ट कर दे , पन्ने बदल दिए जाएँ मगर गाँधी की मृत्यु संभव नहीं। गाँधी की मृत्यु आत्मचिंतन की मृत्यु है जो संभव नहीं। कभी न कभी, कहीं न कहीं, किसी न किसी दिल-दिमाग में मुस्कुराते नज़र आएँगे गाँधी… फ़ीनिक्स राग गाते हुए…

आरती स्मित

कहाँ खो गया उद्देश्य शांति,समृद्धि और भाईचारे का?

कहाँ खो गई दीप्ति तिरंगे की? कहाँ खो गए उन प्रतीक रंगों के मायने? कुछ बच्चे, किशोर ,युवा अवचेतना के किस गहरे खड्डे में गिरते जा रहे हैं कि उन्हें न जीवन मूल्य और न ही मानवता के मायने याद हैं। भारत माँ पर उनके ही बेटों द्वारा और कितना अपमान!

धर्म की परिभाषा बदलती जा रही है। एकता के धागे ही नहीं, गरीबों की साँसें भी तोड़ी जा रही हैं।कोई उनके आँसू नहीं देख रहा जिनके घर महज इसलिए तोड़ दिए गए कि मंदिर परिसर बड़ा हो, सड़कें अच्छी हों, आगे भी ऐसी ही प्रक्रिया होनी है।सवाल उठता है कि क्या नए गढ़े गए भगवान सिर्फ़ अमीर हिंदुओं के लिए प्रतिष्ठित हुए हैं या होंगे? वे सैंकड़ों वर्ष पुरानी मूर्तियाँ उन्हीं देवों की, जो अब तक भक्ति भाव से पूजी जा रही थीं, वे पुरातन मंदिर जो ढहा दिए गए, क्या भगवान वहाँ नहीं थे या वे गरीबों के भगवान थे जो सबसे मिलते थे… बिना भेदभाव के। इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है,किसी हिंदू के इशारे पर प्राचीन मंदिर और मूर्तियाँ खंडित हुईं। पीढ़ी- दर-पीढ़ी जिन भक्तों ने वहाँ पूजा उपासना की, उन भक्तों के हृदय पर क्या आघात हुए जब उन्होंने उन मूर्तियों को तोड़ते देखा।यह खंडन आस्था का हुआ, भक्ति का हुआ। उस भाईचारे और प्रेम का हुआ जो अब तक मिसाल बना था। क्या लगता है, भारत माँ खुश होंगी,अपने ही तन पर ,मन पर अपनों के हाथों चोटें सह-सहकर?

गरीबों की आह उसे बेशक बंद दरवाजे के भीतर सुनाई न दे मगर परम सत्ता किसी ताले में बंद नहीं।

एक दृश्य यह भी–कई कस्बों/शहरों में एक हल्की बरसात में गलीनुमा सड़क पर भरे गंदे पानी में पैर देकर बच्चे सरकारी स्कूल जा रहे हैं।

विद्या और शक्ति की देवी ही नहीं भारत माँ भी बस उत्सव के दिन याद की जाने लगी हैं।वह माटी से प्रेम, मिल-बाँटकर रहने-खाने की वह प्रवृत्ति बड़ों ने भुलाना शुरू किया और अनजाने में ही नन्हे मन पर इसका बुरा प्रभाव छोड़ रहे हैं। जब पाँच-छह वर्षीय नरेन (स्वामी विवेकानंद) ने अपने स्टोर में रखे कई हुक्के देखे और उसे तैयार करते नौकर से पूछा कि इतने हुक्के किसलिए?और यह जानकर कि अलग-अलग जाति के लोग के लिए… तो उनका सहज सवाल था…अगर सब एक ही हुक्के से पियेंगे तो क्या होगा? नौकर के कहने पर ,जाति भंग हो जाएगी तो दूसरा सवाल था…जाति भंग होगी तो क्या होगा? क्या आसमान टूट पड़ेगा?

इस सवाल का जवाब दिया उनके पिता श्री विश्वनाथ ने… यदि जाति बंधन टूट जाएगा तो मानवता का विकास होता।आपसी प्रेम का विस्तार होगा। मनुष्य आत्मरूप से उन्नत होगा। पिता की बातें स्वामी जी को हमेशा याद रहीं। जब काकड़ी घाट से आते हुए स्वामी जी भूख -प्यास और थकान से बेहाल दिखे तो एक मुस्लिम भाई ककड़ी लेकर आए और स्वामी जी ने उन्हें अपने हाथ से खिलाने का निवेदन किया।

महात्मा गाँधी ने आजीवन जाति-बंधन तोड़ने, मानवता के विकास में अपना जीवन खपा दिया। बुद्ध के अष्टांग मार्ग को अपने जीवन में जिस तरह उन्होंने अपनाया, राष्ट्र को प्रेम और भाईचारे का जो पाठ वे अपने कर्मों से सिखा गए; अन्य राष्ट्राचेता संतों,मनीषियों ने सत्य,प्रेम,अहिंसा,परोपकार और समदर्शी भाव से पूर्ण जो मार्ग बताया,उन्हें भूलने वाले अपना अहित स्वयं कर रहे हैं।

भक्ति और ज्ञान अहंकार और नफ़रत को नष्ट करते हैं, विनम्र बनाते हैं, सबको समान समझने की बुद्धि देते हैं।जनसेवा सिखाते हैं। ख़ुद को ऊँचा औरों को नीचा समझने का या अपने -पराए का भेदभाव जिस मन में पले,वहाँ पत्थर की मूरत विराज सकती है,ईश्वर नहीं।

माटी से प्रेम या भारत माँ से प्रेम का अर्थ ही है देशवासियों के हित के लिए सोचना,उनकी बेहतरी के लिए अपनी क्षमता भर प्रयासरत रहना। यह हर नागरिक का कर्तव्य है। जिनके हाथ अधिकार सौंपे गए,यदि उसका दुरुपयोग हो रहा हो तो अपने अधिकारों का ,जनता जनार्दन की शक्ति का सही प्रयोग ही जाग्रत होने का प्रमाण देगा। स्वामी विवेकानंद ने इसी नींद से जागने के लिए कहा था… जाग्रत भव!

संक्रांति की बेला

मकर संक्रांति की बेला को भारतीय, विशेषकर सनातनी शुभ मानते हैं और लोकोत्सव मनाया जाता है।

संक्रांति की बेला भौगोलिक हो, सामयिक हो, नैतिक या सामाजिक , वह दो के एक बिंदु से होकर गुज़रने, एक के उत्थान दूसरे के पतन या कहें कि एक के पतन और दूसरे के उत्थान की सूचक बेला होती है। चरम के बाद ढलान की प्रक्रिया और ढलान से किसी के ऊर्ध्व होने की प्रक्रिया चिरंतन है। पतन-उत्थान की क्रिया कुछ समय साथ -साथ चलती है।ऐसे ही समय को संक्रांतिकाल कहते हैं।

इक्कीसवीं सदी में चीजें हर रूप में जिस प्रकार और जितनी गति से लगातार बदल रही हैं…हर स्तर पर…क्या ऐसा नहीं लगता यह युग की संक्रांति बेला है? एक ओर पाप,भ्रष्टाचार, नफ़रत, अहंकार,हिंसा, धर्मान्धता, लोलुपता का चरम है कि मानव धरती को ही नष्ट करने पर तुला है ,वहीं दूसरी ओर सत्य का उजास किसी आडंबरी अहंकारी बादल के घिरने से भी नहीं छिप रहा। शाश्वत सत्य, प्रेम,शांति, सदाचार, सौहार्द, परोपकार,अद्वैत साधना, जन-जन में चिरंतन शक्ति दर्शन इस विश्वास को श्वास देता है कि कलियुग चरम पर पहुँच रहा है,अब इसके बाद उसके नाश और सत्य युग के उदय की गति तीव्र होगी।

एक ओर विज्ञान और तकनीक के विकास ने दूसरे ग्रहों तक पहुंचा दिया, दूसरी ओर मनुष्य अपने आप को भी खोज नहीं पा रहा। आत्मिक खुशी,शक्ति , शांति,आनंद बाहर तलाशता है यानी भौतिक संसाधनों में, मगर वह आंतरिक स्थायी भावानुभूति भौतिकता के विकास से नहीं मिलती। चरम विकास के बाद उसका क्षय और अध्यात्म का यानी मनुष्य का आत्मिक विकास की गति उर्ध्वमुखी होगी।

इस बेला में मनुष्य स्वयं को तलाश कर अपनी दिशा और दशा में सुधार और बदलाव कर सकता है। सब उसके अपने हाथ में है।

ख़ुशी (भाग 5)

क्या आपने शिशु या छोटे बच्चे को ख़ुश होते देखा है? क्या आपने गौर किया है, वह सबसे अधिक कब ख़ुश होता है? क्या पाया आपने? क्या आपका भी ज़वाब है — वह मनपसंद खाने, पसंदीदा खिलौने, दोस्तों के बीच या गैजेट्स पाकर बेहद ख़ुश होता है? अगर इनमें से कोई आपका ज़वाब है तो आपको फिर से गौर करना चाहिए क्योंकि एक शिशु या छोटा बच्चा सबसे अधिक माँ को,फिर पिता और उन लोगों का साथ पाकर ख़ुश होता है, जिन्हें उसने बचपन से ख़ुद को प्यार और सुरक्षा देते महसूस किया है| माता-पिता के साथ से बढ़कर उसके लिए कोई भी ख़रीदी चीज़ नहीं होती| यहाँ तक कि ढाई-तीन साल की नन्ही उम्र में उसे सामाजिकता का पाठ पढ़ाने और उससे भी अधिक अच्छे स्कूल में दाखिला के लायक बनाने के चक्कर में जब उसे प्ले स्कूल भेजा जाता है, तब भी वापसी के समय वह सामने माता-पिता को ही देखना चाहता है ताकि उनके बिना बीते पलों के अनुभव सुना सके| उसे इस बात की परवाह नहीं होती कि उसकी बात माता-पिता कितना समझ पा रहे हैं, वह तो बस अपनी तरफ़ उनका पूरा ध्यान चाहता है |

  पिछले कुछ दशकों से यही गड़बड़ी शुरू हुई है| बच्चे को सब कुछ मिल जाता है, सिवाय साथ के … सिवाय उनके उस ख़ास ध्यान (केयर) के जो उसे आत्मिक बल देता है| पिता तो दफ़्तर में होते ही हैं| माँ कामकाजी हुई तो आया या घर के बाकी लोग उसकी बाहरी केयर कर देते हैं,कई बार माँ भी ऐसा ही करती है, जैसे खाना-खिलाना, कपड़े बदलना, फिर उसे सुलाने की कोशिश ज़ारी हो जाती है क्योंकि उसके अनुसार, घर के ढेर सारे काम पड़े होते हैं| वह नन्हा अपनी अनुभूतियों को साझा करना भी चाहे तो उस उल्लास से नहीं कर पाता, जैसा वह चाहता है| एक रिक्तता जन्म लेती है जो दिखती नहीं| वह ख़ुद को उपेक्षित महसूस करने लगता है| यह रिक्तता उसे विकल्प ढूँढने पर विवश करती है और धीरे-धीरे वह इसका आदी होने लगता है| फिर चाहे वह खिलौना हो, मोबाइल हो या कोई दूसरा गैजेट| ऐसे छोटे बच्चे जो यह अनुभव करने लगते हैं कि उसके लिए उसकी बातें सुनने-समझने के लिए, उसके साथ खेलने या ढेर सारा समय बिताने के लिए माता-पिता उपस्थित नहीं तो धीरे-धीरे वे उस कमी को भरने का मनचाहा विकल्प तलाशकर पूरी तरह उसमें रम जाते हैं| कई बार तो ऐसा होता है, वे खिलौनों से अपने मन की बात कहते हैं और ऐसे समय में जब माता-पिता या घर के दूसरे सदस्य उसे टोकते या पुकारकर उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगता, एक क्षोभ जन्म लेता है| अपने आपको पूरी तरह कहीं भी अभिव्यक्त न कर पाने का क्षोभ | इस बदलती मन: स्थिति का पता बच्चों को भी नहीं होता| जन्म से पाँच-छह वर्ष तक का समय बच्चों के सर्वांगीण विकास यानी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक, सामाजिक विकास की नींव रखता है| हम में से अधिकांश माता-पिता, अभिभावक बच्चे के शारीरिक ,मानसिक और बौद्धिक विकास पर तो ध्यान देते हैं, आत्मिक गुणों के विकास को नज़रअंदाज़ कर देते हैं जो सबसे अधिक ज़रूरी है| नन्हा शिशु सच्चा, प्रेम, ख़ुशी, असीम ऊर्जा , बुद्धि, समृद्धि के सुख,उल्लास और आनंद आदि से भरा होता है| झूठ, स्वार्थ, भय, कमी, भेदभाव, नफरत, उपेक्षा ,कठोरता और ज़िद करके बात मनवाना और किसी से होड़ करना तो जाने- अनजाने हम वयस्क सिखा जाते हैं और रही-सही कसर विविध चैनलों पर परोसी जाती चीज़ें पूरा कर देती हैं|

  बच्चों को माता-पिता के चौबीस घंटे नहीं चाहिए| सुबह आँख खुलने पर माँ से लिपटकर कुछ क्षण प्यार पाना, माँ के हाथ से खाना, अपने भीतर जन्म लेतीं अनुभूतियों को सबसे पहले साझा करना , प्ले स्कूल/ बाल वाटिका / स्कूल से लौटने पर स्कूल में बिताए पलों को साझा करना, माता-पिता के साथ बाहर की दुनिया को जानना और रात को कहानी सुनते हुए माँ से लिपटकर सो जाना हर बच्चे को सबसे अधिक ख़ुशी देता है| उनमें सही-गलत की समझ का विकास भी माँ के साथ मनचाहे समय बिताने के कारण अधिक होता है| उन्हें उनकी ज़रूरत के हिसाब से समय देने के लिए हमें अपनी रूटीन को, अपने भाव, सोच और दूसरों के प्रति अपने व्यवहार को बस थोड़ा ठीक करने करने की ज़रूरत है| ज्यों-ज्यों वे बड़े होते जाएँगे, उनके भीतर एक विश्वास बढ़ता जाएगा कि जीवन के हर मोड़ पर उनके माता-पिता उनके लिए मौज़ूद हैं| यह साथ होने का विश्वास आत्मबल कमज़ोर नहीं देता|ऐसा बच्चा न सिर्फ़ माता-पिता के लिए, बल्कि समाज के लिए भी आगे बढ़कर काम करने वाला, सबसे प्रेम करने वाला सहज-सरल, मगर दृढ़निश्चयी होता है| उसकी निर्णय लेने की क्षमता भी बेहतर होती है|

अनमोल ख़ुशी (भाग 4)

ख़ुशी और दुआएँ धन से ख़रीदी जा सकतीं तो इतिहास के पन्ने हर एक सम्राट/बादशाह को बेहद ख़ुश और सुकूनमंद दर्ज़ करते, मगर ऐसा नहीं है| वृद्धाश्रम या वरिष्ठ आवास आज उन बुजुर्गों की पसंद बनती जा रही है, जो अपने घर में अपनी ही संतान के लिए धीरे-धीरे अजनबी होते जाते हैं| सेवानिवृत्ति के बाद 70% बुजुर्ग मिले धन को ख़ुशी-ख़ुशी अपनी संतान को सौंप देते हैं, ताकि वे ख़ुश रहें और उनकी ठीक से देखभाल करें, मगर महानगरों में ही नहीं, छोटे शहरों में भी एक छत के नीचे दो-तीन पीढ़ियाँ या तो व्यापारी वर्ग के परिवारों में दिखती हैं या बहुत कम पढ़े-लिखे परिवारों में | शिक्षित और नौकरी पाए विवाहित बेटों का नया घर पुराने सामान को ही नहीं, पुरानी पीढ़ी की ढहती देह को भी सह नहीं पाता|माँ-बाप खंडहर हो रहे शरीर को खंडहर हो रहे मकान में ही त्यागने की दिली ख्वाहिश किए बैठे हों, कुछ प्रतिशत ऐसा ही भी, शत-प्रतिशत तो ऐसा नहीं है|जीवन की गोधूलि बेला में वे पोते-पोतियों के साथ रहना, समय बिताना चाहते हैं ताकि उनके जीवन में भी हँसी-ख़ुशी के थोड़े रंग घुल जाएँ|घर-परिवार को सँवारते-सँवारते वे ख़ुद को सँवारना भूल जाते हैं और जब समय इन बातों के लिए उनकी भागदौड़ पर लगाम लगाता है तो वे ख़ुद को लुटा हुआ महसूस करते हैं… पराधीन से|

   कभी वृद्धाश्रम जाएँ तो ठिठककर सोचें, आपके घर के बुजुर्ग अपने ही घर में अकेलेपन की घुटन तो नहीं भोग रहें? कहीं, उनका मन भी तो ऐसे ही किसी आवास में आने का नहीं कर रहा? कर रहा है तो क्यों? ऐसा क्या छिन रहा उनसे जिनका छिन जाना आपको दिखाई नहीं दे रहा? सोचेंगे तो ज़वाब आपको आपके भीतर से ही मिलेगा| आप पाएँगे, जिन बुजुर्गों को सेवा-निवृत्ति के बाद भी किसी काम में सक्रिय रहना पसंद है, उन पर उम्र हावी नहीं होता, वे चुस्त-दुरुस्त रहते हैं| जैसे- घूमना, कोई गेम खेलना, पढ़ना-लिखना, सामाजिक सेवाकार्यों में लगे रहना आपके घर के बुजुर्ग भी पसंद करते हों तो उन्हें रोके-टोके नहीं, उनका हौंसला बढ़ाएं और जहाँ सहयोग की ज़रूरत ह, आगे बढ़कर सहयोग करें| घर के भीतर बुनी जानेवाली छोटी-छोटी खुशियाँ ही जीवन को भरती हैं| आप जितना अपनों या दूसरों के लिए छोटी-छोटी खुशियाँ बुनेंगे, आप अपने लिए बड़ी ख़ुशी की नींव मज़बूत करते जाएँगे| सच्ची ख़ुशी अनमोल होती है, उसे कमाएँ और दुनिया के सबसे समृद्ध व्यक्ति बन जाएँ|

बुजुर्गों के अनुभव

बुजुर्गों के अनुभव जीवन को समझने में जितनी मदद देते हैं,कोई शिक्षण संस्थान नहीं दे सकता। उनसे प्रत्यक्ष सीखने के लिए रोज़- रोज़ बैठे बिना भी, यदि केवल उनके विचार सुनने और व्यवहार पर ध्यान देने की कोशिश करें तो कितनी ही अनूठी बातें सामने आ जाती हैं जो हमें एहसास कराती हैं कि हमने अतीत में क्या सही,क्या गलत किया, वर्तमान में क्या कर रहे हैं और अपने लिए कैसा भविष्य रच रहे। सच तो यही है… नई पीढ़ी हमारा अतीत याद दिलाती है तो पुरानी पीढ़ी, विशेषकर जीवन को 8-9 दशक जी चुकी पीढ़ी हमारा भविष्य दिखाती है।

इस तस्वीर में 90 वर्ष पार कर चुकीं अम्मा जी हैं, जिनका सान्निध्य सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है तो दूसरी ओर 101 वर्ष पूरा कर चुके योगवीर हांडा जी, जिनका बचपन गांधी और सुभाष को निकट बैठकर सुनते, सत्याग्रह में गिलहरी की भूमिका निभाते और यौवन भी आज़ादी की लड़ाई को समर्पित रहा और आज़ाद भारत में समाज को बेहतर बनाने में रहा।पूरी सदी के उतार-चढ़ाव देखी उन आँखों ने जो अनुभूतियां सँजोई, वह धरोहर है हमारे लिए…

बात एक अम्मा,एक हांडा की नहीं, कई अनुभवी आँखों की है,जिनसे बहुत कुछ सीखा और ख़ुद को बेहतर बनाया जा सकता है। भगवतधाम वरिष्ठ आवास सताए लोगों का जमघट नहीं, अनुभवी और अपने-अपने क्षेत्रों में विशेषज्ञ लोगों का गुलदस्ता है।

यों तो घर की दहलीज के भीतर भी बूढ़ी आँखें छलछलाती रहती हैं… चुपचाप…बस,हमें पता नहीं होता और वृद्धाश्रम का नाम सुनते ही हम परिवार को बुरा-भला बोलने लगते हैं। बेशक, एक हिस्सा पीड़ा भरा है,मगर वह भी हमें भविष्य के लिए आगाह ही करता है।

बुजुर्गों को सुनना,समझना, उन्हें खुशी देना और आशीष कमाना… यदि ये काम दिनचर्या का अहम हिस्सा बन जाए तो ज़िंदगी नायाब तोहफ़ा बन जाएगी।

मौन की सार्थकता

मौन की सार्थकता और सफलता जीवन को नया आयाम देती है। कई बार किसी को समझाने के लिए सैंकड़ों तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं, मगर फिर भी समझा नहीं पातें ।फिर लगने लगता है कि इतना कुछ कहना बेमानी रहा; शब्द और ऊर्जा, दोनों बेकार ज़ाया हुए।

जब यह लगने लगे कि शब्द सही अर्थ दे पाने में समर्थ थे,मगर सुननेवाला साथी या कोई और … इसे न समझने की ज़िद में हैं तो मौन सबसे अच्छा विकल्प है और आसान राह भी।

संत पाइथोगोरस कहते हैं, “अर्थहीन अभिव्यक्ति से अर्थपूर्ण मौन अधिक बेहतर है।”

अनुभव बताता है, कई बार कह-लिखकर अपने भाव-विचार व संकल्प को अभिव्यक्त करने और दूसरों तक पहुँच बना पाने की नाकामयाब हो रही कोशिश को बाद के पलों में साधी गई चुप्पी कामयाब बना देती है। सुनने-पढ़नेवाला किसी अपने द्वारा उसके लिए कही जा चुकी बातों पर दोबारा सोचने लगता है और जब ध्यान केंद्रित करता है तो धीरे- धीरे बात समझ में आने लगती है। वह उस मौन के पीछे के शोर को सुनने -समझने लगता है।

‘Take away” की तर्ज़ पर अर्थपूर्ण मौन निरर्थक हो रहे शब्दों को को भी अर्थपूर्ण बना जाता है।