चयनित कहानी : गठरी ; इकल्पना, अगस्त २०२१

  • डॉ आरती स्मित
    • 19 अग॰ 2021

गठरी

“कहाँ चल गए जी! हमको छोड़कर पहले काहे चल गए जी! बरका-बरका रूम में भूत के तरह अकेल्ले डोलते रहते हैं, घिसियाते रहते हैं देह। पाँव नै उठता है। रग-रग दुखता है। पेसाबो नै रुकता है। कहाँ जाएँ ? के रक्खेगा ई घिस्टाही बुढ़िया को? बरा गरब था पूत पर, आपको कुछ नै बूझे कभी। अब पछताते हैं। कहाँ से ले आएँ आपको जी! कभी देखाबो त दीजिए न जी।”

पति की तस्वीर के सामने दीया जलाती हुई फूट पड़ी वह। जी चाहा तस्वीर सीने से लगा कर धार-धार रो लें, हो जाने दें खाली समंदर, पर कमबख्त आँसू भी बर्फ़ की चट्टान हो गए थे। जम गए थे किसी कोने में। लाल-पीली साड़ियों और खनकती चूड़ियों ने नाता तोड़ लिया था। सफेदी बालों में पुत-सी गई। चेहरा भी अपना नहीं लगता। सिंदूर की लालिमा ने कितना कुछ छीन ले जाती है! धैर्य तो मानो पति के साथ ही चला गया। अकेली रोती-कलपती वह बिस्तर पर जा बैठी। पूरे कमरे पर एक नज़र दौड़ाई। कुर्सी, टेबल, चौकी, फ्रिज, पंखा सब मुँह लटकाए, मातम मनाते से लगे तो नज़र छत पर टिका दी।

‘बिस्तर पर परे-परे उ भी त छते निहारा करते थे। केतना लाचार हो गए थे! डाक्टर कहा था, उठा-बैठा कर खाना-पानी दीजिए। नै कर सका कोय। लेटे-लेटे खाना–पानी से भला जी जुराता है किसी का! दबा निगलते रहे। नै खाना चाहते थे तब भी जबरदस्ती घोंटाया जाता था। बिना बेमारी का सौ बेमारी पकर लिया। कम्पोण्डर के काहे पर चलता रहा, हमरा बात नै रक्खा कभी। मुंह झौसा डाक्टर कैसे बोल दिया, छूत का बेमारी है! और बिट्टू के कहने पर हम भी कइसन औरत की साथ सुतना छोर दिए। अकेल्ला एतना बरका रूम में रात भर रिरियाता रहता था। हम भी त ई बुढ़ापा म गू-मूत करते थक जाते थे। उ त तर गए। सरग गए। हम बुढ़िया पापन! हमको रात- बे-रात देखने वाला के है!’

‘आजकल गल्ला भी केतना सूखता है। अब पलंग से उयतर कर टेबुल तक जाने में भी भारी लगता है। उ जैसन भी थे। बोली का खराब थे, लेकिन जब तक हाथ-पैर चलते रहा हम चाय-पानी का सुख पाए। मन होता था त कुछ बनाइयो लेते थे। तब हमको फटनी झोंकता था खाने-पीने में। अब … हे परभु!

उसने धरती तक पैर के अँगूठे को पहुँचाने की कोशिश की ताकि धीरे-धीरे खिसक कर पूरा पैर ज़मीन पर टिका सके। खड़े होने की कोशिश में रुँधी आह निकल गई मुँह से मगर टेढ़ी कमर तुरंत सीधा कर उठ पाना आसान न हुआ। हथेली से दबाव बनाकर जी हलकान करती उठ खड़ी हुई और टुघरती हुई डाइनिंग टेबल की तरफ़ बढ़ने लगी।

“अब दू घोंट पानी नै पीयेंगे की छर्र से पेसाब लग जायगा। बाथरूम जाते-जाते त … । हे परभु! उनको घिनहा कहते थे, अब हमीं घिनाही हो गए। जबानी में जो मार-पीट किए, लेकिन बेटा-पुतहू त धीरे-धीरे अपना मकान बना-बनाकर किनारा कर लिया, फिर चौका त उहे सम्हाले रहे। जब तक हाथ-गोर में जान रहा उ किसी का भरोसा नै बैठे। अपने भी खाते-पीते रहे, हमको भी खिलाते-पिलाते रहे। हमीं कभी बड़ाय नै किए। लंगचाते हुए भी केतना न केतना चीज बना लेते थे। हम उलटा गोसैबे करते थे की काहे एतना पसरन पसारते हैं। बाद म त उहो पसंद का चीज खाने के लिए तरसिये के रह जाते होंगे जब से घर में खाना बनाना बंद हुआ। कभी कुछ करना भी चाहते थे हमीं बरबादी के डर से मना करते रहते थे। आज बूझते हैं, जिंदगी भर खाया पिया मुँह सी के नै रह सकता है। उनको उबला सब्जी पसंद था। पतहु के हाथ का तेल ढरकल तरकारी से कहते थे कलेजा जलता है, लेकिन बरबादी के चलते हम जबरदस्ती करते थे। हमरे नजर लग गया उनको। उ तैयार होकर रहना चाहते थे त हमको चिढ़ काहे होता था! हम भी त क्रीम पाउडर करते थे। अब पछताइये के क्या कर लेंगे! हे परभु!”

अपने आप से बतियाती वह टेबल से सटी नक़्क़ाशीदार काठ की कुर्सी पर आहिस्ते से बैठी। काँपते हाथ से पलटे हुए स्टील के गिलास को सीधा किया। ताक़त लगाकर जग उठाया और पानी उड़ेला। काँपते हाथों में थरथराता गिलास होंठ तक पहुँचा। एक घूँट पानी गले में उतरा। आँखों के सामने पानी-पानी करते पति की बेबस आँखें घूम गईं। अतीत की सेज पर औंधे मुँह सोए वे दर्दीले दृश्य जाग उठे … एक करवट लेटे रहने के कारण आँख दबी-दबी रहती हुई मुंद-सी गई है। कोर हौले-हौले तकिये पर खारा बूँदें गिरा रहे हैं। गाल भी दबकर काला पड़ चुका है और लिटाए-लिटाए खिलाने-पिलाने के कारण गला और गले के पास का तकिया भीगा रहता है। पति दवा की गरमी की जलन से पानी की तलब लिए तुतलाकर बमुश्किल पानी माँग पाते हैं। आधा मुँह भी दबा है, उसके साथ जीभ भी। टेढ़े मुँह में चम्मच से खाना या गिलास से पानी पीने की इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाती है। मुँह भी उस कोण से खाने-पीने के कारण टेढ़ा होता जा रहा है। अव्यवस्थित देखभाल के कारण वे आखिरकार परिस्थिति से हार मान लेते हैं। भूख साध लेते हैं और प्यास भी। कभी-कभी आकुलता बढ़ती तो टेरते हैं—पानी-पानी, मगर पी न पाने के कारण आँखों से पानी ढरक जाता है, दम लगाकर झल्लाते हैं—हटाबौ, नै पीना छै’। वह भी झल्लाती “नै पीना रहै छौं त मांगै काहे छौ,… खाली हमरा परेसान करै ल।…… दृश्य उसकी आँखों में समा कर विलीन हो गया तो विषाद फिर प्रलाप बन प्रकट हो गया, “हममू तोरा पर गोसाय जाय रहियो, हमरा माफ करी दा। ए जी! सुनते हैं न!” उसने साड़ी के आँचल के कोर से चेहरा पोंछा। बड़बड़ाती रही, “अब क्या होगा सोचकर। हम त लुट गए। अभागन हैं, जिंदा हैं। आपको उठाने-बैठाने का इंतजाम हो जाता त आप एतना कस्ट नै काटते। न बिस्तर सटते, न …..” शब्द गले में फँसे रह गए। पेशाब की अनुभूति होते ही कुर्सी से उठने की कोशिश में डाइनिंग टेबल का सहारा लिया, मगर तब तक दो चार बूँद पेटीकोट से लिपट चुकी। बूँद-बूँद टपकता गया बाहर तक। बाथरूम तक जाने का सब्र न हुआ तो आँगन में आधे खड़े-खड़े ही बह जाने दिया। फिर ज़रा झुक कर नल खोला, पानी के करतब पर विचारा और शरीर से पेशाब की गंध दूर करने की कोशिश करने लगी। टेढ़ी हो रही कमर से झुकना, झुक कर उठने की कोशिश उसकी आह को दावत देती। “हे परभु! अब नै! अब हम बुझ रहे हैं उनका कस्ट! ऐसहिए त उनको भी होने लगा था। पेसाब लगता था त बताते भी थे, हमीं नै समझ पाते थे कई बार। कंपाउंडर के कहने पर अराम के लिए नली लगवा दिया। केतना दरद से छटपटाते थे। बिना बात का कस्ट सहते रहे। चौबीस घंटा थैली लगे रहने से भीतर से पेसाब लगने का अनुभव मर गया, फिर पखाने का भी। एतना चिक्कन रहनेवाला ऐसा गति भोगा!… हो भगवान! हमरा क्या होगा? हमको के करेगा? हे परभु! चलते-फिरते ले चलौ। ए जी! हम जेतना सकें, सेबा करबे किये न जी, आसिर्बाद दीजिए न की बुढ़िया चलते-फिरते चल जाय। अकेल्ला परल रहते हैं। उहे घर-एंगना है। अब सब पर मातम छाया रहता है। आप गए सब सुन्ना कर गए।”

वॉकर खिसका कर वह आँगन में रेलिंग से सटी पड़ी कुर्सी पर बैठने लगी तो एकबारगी लगा, बगल वाली कुर्सी खड़की। उसने आँगन निहारा। बरामदे पर नज़र दौड़ाई। कहीं कोई नहीं था। शाम धीरे-धीरे आँगन में बिछने लगी थी। उसे लगा, गोधूलि तो अब उसकी ज़िंदगी का हिस्सा है, उठकर भीतर क्या जाना! बैठी रही चुपचाप। सड़क निहारती रही। हवा का शरीर छू कर गुज़रना भला-सा लगा। सड़क पर आते-जाते लोग और गाड़ियों की चिलल-पो भी भली-भली-सी लगी। ‘कमरे में अकेलेपन का सन्नाटा अधिक बरजता है’ उसने सोचा। सोच उड़कर फिर अतीत की डाल पर जा बैठी,

‘उ भी जब ठीको थे, तबभो भनसा से निकलकर खड़े-खड़े चाहे इसी पर बैठकर रोड निहारने लगते थे। रोड निहारते-निहारते उनका चेहरा हँसने जैसा हो जाता था त भगवान जाने हमको काहे गोस्सा आ जाता था! काहे कोसने लगते थे उनको! काहे हर समय सक करते थे!’

अपनी सोच और बड़बड़ाहट से घिरती हुई उसने आसमान की तरफ़ नज़र उठाई, ‘हो भगवान! माफ करियौह! आज हम समझ रहलौ छी की हमरौ सक के कारन उ आदमी हरदम अपना क अकेल्ला पैलके, यहा ल उठ कै घर स बाहर आ जाय होतै। हम समझदारी नै देखेलिए। पूरा जिंदगी कलहे म बीतलै। आय समझ रहलौ छी केतना बरा ठाहर रहै ई घर म!’

आँगन चाँद का साथ पाकर दपदपा रहा था या बहुत दिनों बाद उसका साथ पाकर, वह समझ न सकी। आँगन के बीचोंबीच खटिया पर बैठने की लालसा लिए उसने वॉकर को पास खींचा और टकटकाती हुई धीरे-धीरे वहाँ पहुँची। पुरानी खटिया पर हौले से आह भरती हुई बैठी, लगा खटिया बुदबुदा रही हो, ‘अब याद आई मेरी’। उसने प्यार से ढीले पड़ रहे नेवार को सहलाया। अचानक उँगलियों में सिहरन हुई, लगा पति की देह पर हाथ फिरा अभी-अभी। कितनी ही रात गुज़ारी थी दोनों ने साथ-साथ! इसी खटिये पर। चाँदनी रात तो उनको इतना पसंद था कि बिजली, पंखा सब रहते आँगन में पड़े रहते, मच्छर कटाते रहते। बाद में तो मसहरी भी बाँधना शुरू कर दिया था।

‘अपना अंतिम दिन में हमसे बोले भी इसारा से कि एक बार चाँदनी रात में आँगन में बैठा दे, लेकिन हम डरे से बेटा को नै बोलें की फीरू चिल्लाएगा हमरे ऊपर।…. बेचारा जीते जी एंगना नहीं जा सके, देह मिट्टी हो गया तब …. पानो माँगे थे, हम उ भी भूल गए।….. अब पछताइये के क्या होगा? चल गया सोहाग हमरा! सिंगार हमरा!’

सोचों की सीढ़ी से उतरी जब गाल पर कुछ एहसास हुआ। दो गरम लावा ढुलका … एक साथ! उसने फिर आसमान निहारा। चाँद में से पति झाँकते नज़र आए। ‘चाँद कितना सुंदर है! केतना बरस बाद ध्यान गया मेरा। जब एंगना में सुतते थे, तब भी एतना ध्यान से नै देखे होंगे! … पता नै घर, बाल-बच्चा में उलझे रहे जबानी गुजर गया। बाल-बच्चा का गू-मूत करो, खाना-पीना, पढ़ाई-लिखाई का चिंता करो। बरा हो जाय त सादी-बिहा का सोचो। अरमान से पुतोहू लाओ, उसका भी बाल-बच्चा संभार दो। जब सब ठीक हो जाय त कुछ बाहर उड़ जाएगा, कोय यहीं अलग घोंसला बना लेगा। कैसे रहेगा ई पुराना मकान में ! ई बुढ़िया कहाँ जायगी। कोनो बेटा-पुतोहू में हिम्मत कहाँ है बोझा ढोने का। एक ठो है की दू बेर खाना खिला देता है, झाँक जाता है दू बार, बाकी त अपने से परेसान है। के ई बुढ़िया को ले जाकर घर-दुआर में गंध मचवावेगा! पुतोहू थारी पटक कर खाना दे सामने में, उ से त अच्छा है की अपना डीह में रहें। जैसे रहें। अपना बसाया हुआ है। उनका याद है हर जगह।’

आँगन के ठीक सामने रसोईघर का दरवाज़ा सटा पड़ा था। उसने फिर हिम्मत जुटाई, धीरे-धीरे उठी और वॉकर के सहारे चलती हुई रसोई घर पहुँची। दरवाजा खोला, बत्ती जलाई प्रणाम किया, फिर बुदबुदाती हुई पलटी “चौबीस घंटे जगमग करता भनसा अब दू बार खुलता है। भनसिया ले गया उप्पर। उसी को शौक था खाने-पीने का। कोय बनाने वाला नै था त अपने बनाके ले आते थे तरह-तरह का चीज। केतना चीज बनाते थे। टूटलो हाथ से कर लेते थे। अब त….’ निःश्वास छोड़ती हुई उसने फिर ऊपर देखा। “चम-चम चाँद दम-दम सूरज। हमरौ घर फिर भी अंधार। ई घर के इंजोर गेलै सात आसमान पार…. कस्ट भोगे लेकिन तर गए जी। भगबान हो गए। मरा चेहरा कैसा सांत लगता था। साधु जैसा। हम अभागिन रह गए भूत के तरह ई बरका घर-एंगना में अकेल्ला बड़बड़ाने। हम भी गठरी हो गए जी! फालतू गठरी। आप त बोल कर गए, देखना हम मरेंगे त सब एकट्ठा होगा। जीते जी पूरा परिवार साथ नै देख पाए, मरने के बाद देखेंगे। आपका बोला सच हो गया।”…… “हमको त इहो उम्मीद नै है। न जीते जी, न …..

दो गरम लावा फिर एक साथ बहा और चाँदनी जल गई!

मातृदिवस का बढ़ता प्रचलन और माँ

माँ शब्द महज शब्द नहीं ,एक भरा-पूरा एहसास है। एहसास है ममत्व का, एहसास है प्रतिकूल परिस्थिति में मिलनेवाले हौंसले का, एहसास है संघर्ष की तपिश से झुलसते मन को मिलनेवाली शीतल छाया का। माँ होती है तो शिशु की किलकारी गूँजती है;बचपन की चपलता होती है। माँ होती है तो घर- बाहर एक सुरक्षा-बाड़ होता है,जहाँ भावनाएँ पलती हैं, विचार गहराते हैं,संकल्प मजबूत होते हैं। विपरीत समय हो या परिस्थिति , माँ सबसे लड़ जाती है, मगर बच्चे को टूटने- बिखरने से बचाती है। माँ की दुनिया में रोशनी का दूसरा नाम संतान है।

वही माँ जब उम्र की ढलान से उतरते हुए साँझ में बदल जाती है तो कभी धीरे-धीरे,कभी अनायास उसकी सतरंगी आभा गोधूलि में बदलने लगती है।धूसर/बेरंग होने लगती है–कभी सोचा है,क्यों? क्यों रात की कालिमा उसकी बची-खुची साँसों पर ग्रहण लगाने लगती है? जिन बच्चों को सूरज,चाँद,आँखों का तारा मानती है, वे सूरज,चाँद -सितारे माँ की ढलती साँसों को अपने उजास से क्यों नहीं भर पाते?क्यों उनके मन पर अँधेरे की परत चढ़ने देते हैं? क्यों उन्हें आश्वस्त नहीं कर पाते कि वे हैं–उनके पास,उनके साथ, कभी कम न होनेवाला प्रेम और वात्सल्य का वही छलछलाता कटोरा लिए।

     बूढ़ी माँ की बुझी आँखों में चमक उभर आती है जब संतान सामने होती है; जब भरा-पूरा परिवार उसे वही स्नेह और सम्मान देता है,जिसकी वह हक़दार है। खरीदे तोहफ़े जी नहीं जोड़ते, उन्हें तो अपने बच्चों से आत्मीयता का वही सुरक्षा-बाड़ चाहिए, वही शीतल चाँदनी और वही गुनगुनी धूप…छोटी-छोटी खुशियाँ बुनते नन्हें-नन्हें पल। उँगली पकड़कर जिसने चलना सिखाया,उनका हाथ  थामे रहें तो हर दिन मातृदिवस  होगा।

      स्नेह-सम्मान का एक दीया अपनी माँ के लिए और एक अपने बच्चों की माँ के लिए जलाए रखेंगे और बच्चों को भी प्रेरित करेंगे तो किसी घर का कोई कोना कभी अँधेरा नहीं होगा। न कोई कमरा बुजुर्ग माँ के अकेलेपन के सीलन से भरा होगा और न ही वृद्धाश्रम जाने  के लिए डगमगाते क़दम विवश होंगे।

आमीन!💐

मातृदिवस की शुभकामनाएं!💐💐💐

……….

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कविता : कहाँ ख़त्म होती है बात \\ कवि एवं स्वर : नरेंद्र मोहन \\ यादगार…

तीन वर्ष हो गए इस दैहिक दुनिया से प्रस्थान हुए….आप कहीं भी रहें,आपकी आवाज हमारे भीतर गूँजती रहेगी… और आप  हम सब मे मुस्कुराते नज़र आएंगे..

आलोचना संग्रह ‘हिंदी साहित्य के पुरोधा’

आलोचना संग्रह हिंदी साहित्य के पुरोधा’ के इस द्वितीय संस्करण में  हिंदी साहित्य के 13 पुरोधाओं के जीवन और सृजन पर मेरे आलेख के साथ ही,इस पुस्तक पर की गई तीन समीक्षाएँ भी शामिल हैं । समीक्षक हैं :
प्रो. हरिमोहन ( कुलपति)
प्रो. रमा (प्राचार्या,हंसराज कॉलेज)
डॉ. भावना शुक्ला (सहायक प्रोफ़ेसर)

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कविता : किशोर उँगलियाँ ; कवयित्री : आरती स्मित

मज़दूर भाइयों को समर्पित कविता ‘किशोर उंगलियाँ’

टिप्पणी

बाल और किशोर मन की धड़कनों को समझने वाली कवयित्री आरती स्मित ने “किशोर उँगलियाँ” के माध्यम से बाल मज़दूरों के उन अनुभवों को स्वर प्रदान करने की कोशिश की है जिन्हें हम और आप गली-नुक्कड़ पर जूतों की पॉलिश और मरम्मत करते हुए पाते हैं. ये किशोर जूतों के स्पर्श के माध्यम से सपने बुनते हैं और आशा-निराशा में डूबते उतराते हैं और अंत में इस सोच से भी ऊपर उठकर निरासक्त हो जाते हैं.कवयित्री को इतनी सुंदर बाल-रचना के लिए साधुवाद !

विजय कुमार मल्होत्रा

कविता : माँ जानती है सब कुछ ; कवयित्री : आरती स्मित

2013 में आकाशवाणी से प्रसारित एवं 2016 में तीसरे कविता संग्रह ‘तुम से तुम तक’ का हिस्सा बनी कविता ‘माँ जानती है सब कुछ’अब यू ट्यूब पर उपलब्ध है।

कविता : अब?? कवयित्री : आरती स्मित

जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचकर ,खो चुके समय  पर पछताते इंसान की कविता ‘अब’??
        मित्रो,यह कविता युवा पाठक एवं उर्दू शायर सुशान्त चट्टोपाध्याय के स्वर में आपने पहले भी सुना होगा। कुछ अन्य पाठक मित्रों की माँग रही कि इसे अपना स्वर दूँ। तो लीजिए 8 महीने बाद ही सही, आप मित्रों की माँग पूरी हुई।आपका स्नेह मेरी पूँजी है। प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।

कहानी ‘झूलते सवाल’ पर भाषाविद विजय कुमार मल्होत्रा की टिप्पणी

मर्मस्पर्शी।

‘झूलते सवाल’ में आत्महत्या या हत्या की मर्मांतक पीड़ा पाठक के मन को भी छलनी कर देती है. ये सवाल लेखिका के मन को ही नहीं पाठक को भी विचलित कर देते हैं. लेखिका की कलम से सिर्फ़ शब्द ही नहीं रिसते घाव का खून भी टप-टप गिरते हुए पाठक को चैन से जीने नहीं देता. आरती स्मित बुढ़ापे के सन्नाटे और पीड़ा को ऐसे व्यक्त करती है मानो यह हादसा उसके साथ ही हुआ हो. एक और मर्मस्पर्शा कहानी के लिए लेखिका को साधुवाद !

विजय कुमार मल्होत्रा