इनसे मिलिए विविधता के समुच्चय डॉ. मधुकर गंगाधर

भेटकर्त्री : डॉ. आरती स्मित तिथि : 11. 08. 2015

 

 

पिछले दिनों वरिष्ठ साहित्यकार मधुकर गंगाधर जी से लंबे संवाद का अवसर मिला। मधुकर गंगाधर आकाशवाणी के निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए। इससे पहले वे  दो वर्षों तक बिहार सरकार के उद्योग विभाग में ‘कमर्शियल इंटेलिजेंस अफसर’ के रूप में कार्यरत रहे थे।श्यामलाल कॉलेज तथा एशियन स्कूल ऑफ फ़िल्म एंड टेलीविज़न में स्नातक छात्रों को  प्रसारण कोर्स का अध्यापन, फ़िल्म सिटी, नोएडा में स्नातक-स्नातकोत्तर छात्रों के लिए प्रसारण कोर्स का अध्यापन, नोएडा रेडियो (कम्यूनिटी) 10.4 के  संस्थापक- निदेशक  पद-भार भी संभालते रहे। पत्रकारिता के क्षेत्र में ,’ चुननु-मुन्नू’, ‘नया’,’युगीन’ का संपादन और’ नूतन सवेरा’ के एक्रिडेटेड संवाददाता रहे।आपकी  एक सौ  कहानियाँ चार पुस्तकों में संकलित होने के कारण सुरक्षित रह गईं, क्योंकि केवल पत्रिकाओं में प्रकाशित कई उम्दा कहानियाँ पुराने पाठकों की स्मृति में ही शेष हैं। नौ उपन्यास, जिन्हें हाल में ही तीन खंडों में विभाजित कर संकलित किया गया है। छह कविता संग्रह ,जिनमें पिछले वर्ष प्रकाशित ‘गूँगी चीखें’ बहुचर्चित रही। पुराने कविता संग्रहों, जैसे बघनखा ,वर्ष 1975 व अन्य को ‘शस्त्रागार’ शीर्षक के तहत पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है। ‘झलारी चरित’ इनके गाँव झलारी को समर्पित काव्य संग्रह है। तीन संस्मरण, तीन नाटक, सांस्कृतिक विषय पर एक,प्रसारण संबंधी तीन पुस्तकें इनके  द्वारा रचित है  और   दसवें उपन्यास पर काम ज़ारी है;’ढोडाय चरित मानस’ का हिन्दी अनुवाद किया।  पचास के दशक से लिखते और पाठकों को झंझोरते रहने वाले 84 वर्षीय युवा मधुकर गंगाधर जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर कई आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हैं; रेडियो पर पीएच डी करने वाले मधुकर गंगाघर की कृतियों ने मुझे इस क़दर जिज्ञासु बना दिया कि उनसे समय लेकर उनके घर पहुँच गई। बैठक के सोफ़े पर आसीन मधुकरजी के निकट ही मैंने अपना आसान जमाया और फिर संवाद का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसकी छोटी झलक आपके सम्मुख ….

 

आरती :  आपकी रचना -संपदा ने मेरे मन में कई जिज्ञासाएँ उत्पन्न कर दी हैं । मुझे लगता है , ये जिज्ञासाएँ सिर्फ मेरी नहीं, बल्कि आपके गंभीर पाठकों के मन में भी उठती रही होंगी ।

 

मधुकरजी : बताओ, क्या जानना चाहती हो? जो पूछोगी, सबके जवाब दूँगा, बस ऐसे प्रश्नों पर कुछ नहीं कहूँगा , जिससे किसी अन्य को किसी भी तरह की हानि या चोट पहुँचे।

 

आरती :  बिहार की माटी ने कई विभूतियों को जन्म दिया; दिनकर, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ  रेणु जैसे मूर्धन्य साहित्यकार भी गाँव की ही उपज थे। आप भी गाँव से संबद्ध हैं। अपने परिवार और गाँव के विषय में कुछ बताएँ

 

मधुकरजी : तुमने जिन साहित्यकारों के नाम लिए, वे तो महत्वपूर्ण हैं ही , मैं उस कोसी माटी की उपज हूँ और स्वयं को धन्य मानता हूँ कि उस माटी में वनफूल, केदारनाथ बंद्योपाध्याय, डॉ. लक्ष्मीनारायण सुधांशु, जनार्दन प्रसाद मिश्र  जैसी विभूतियों ने जन्म लिया।

मेरा गाँव, जहाँ आज भी बिजली पूरी तरह नहीं पहुँची; खरंजा वाली सड़क दस वर्ष पहले यानि कि आज़ादी के लगभग पचास वर्ष बाद बनी। मेरा गाँव झलारी, थाना रुपौली, ज़िला पुर्णिया है जो बिहार का उत्तरी भाग है। पितृभाषा अंगिका और मातृभाषा मैथिली है। मेरी माँ दरभंगा की ठेठ मैथिली भाषी थी। मेरे ऊपर मैथिली और अंगिका साहित्यकारों का भी कम अधिकार नहीं है, क्योंकि अपनी सामर्थ्य के अनुसार मैंने इनमें भी लिखा है। और मेरे भीतर मेरा गाँव इस कदर बैठा है कि उसपर मैंने पूरा चरितकाव्य लिख डाला।

 

आरती : साहित्य के प्रति आपका रुझान कैसे हुआ ? आपने सबसे पहले किस विधा में लिखना शुरू किया और कब?

 

मधुकरजी : पाँच- छह वर्ष का हुआ तो पिताजी कहानियाँ सुनाने लगे। रामायण, महाभारत से लेकर ठगों की कहानियाँ भी। साहित्य के प्रति रुझान का आधार तो बचपन की उन कहानियों को ही माना जा सकता है।

शुरुआती लेखन की बात करूँ तो पहली कविता श्मशान पर लिखी ,तब आठवीं में पढ़ता था । उस समय पंत और दिनकर की प्रकृतिपरक कविताओं की ओर झुकाव अधिक था। 1946 में लिखा गीतिनाट्य लिखा जो उन्हीं दिनों ‘राष्ट्र संदेश’ नामक साप्ताहिक पत्र में छपा।नाटक लिखने की शुरुआत गाँव से की। 1950 में अकाल पड़ा तो ‘अकाल’ शीर्षक से नाटक लिखा और साथी युवकों को साथ लेकर मंचन भी किया जो बहुत सफल रहा। कई बार यह नाटक अलग -अलग जगहों पर खेला गया। पर्व-त्योहारों के अवसर पर अपने ही गाँव में प्रस्तुत किया। इसका उद्देश्य लोगों को इस समस्या से जूझते लोगों के प्रति संवेदनशील बनाना था, ताकि उन्हें अधिक से अधिक राहत पहुंचाया जा सके।

 

आरती : आप अपने लेखन में किन-किन साहित्यकारों की छाप महसूस करते हैं?

 

मधुकरजी :मेरे लेखन पर मनोहर पोथी से रामायण; प्रेमसागर से लेकर चंद्रकांता संतति से शुरू करें और 1950 तक जिस किसी ने भी हिंदी में लिखा  और मैंने पढ़ा , उसका सार तत्व तो मैंने लिया ही। मेरी रचनाओं पर माँ के दूध और पिता की  लोक कथाओं का असर है।इस संबंध में चार पंक्तियाँ सुनाना चाहता हूँ :

 

आरती : जी ज़रूर!

 

मधुकरजी : रात मैंने कंटीली झाड़ियों को रौंदते

गीली मिट्टी पर पैरों की छाप छोड़ते

सुबह तक उस बबूल के निकट पहुंचा था

कल जब सूर्योदय होगा तो लोग जानेंगे

कि मैंने  रोशनी के लिए

उल्लुओं तक का दरवाज़ा खटखटाया था।

 

आरती : कहानी विधा को आपने कब अपनाया ?

 

मधुकरजी : जहाँ तक मुझे याद है, मैंने पहली कहानी 19 54-55  में लिखी। कहानी थी ‘घिरनी वाली’। यह महज कहानी नहीं, एक कड़ुवा यथार्थ था जो मेरी नज़रों से गुजरा और मेरी संवेदनाओं ने कहानी की शक्ल ले ली। यह घटना  मैला सिर पर ढोनेवाली एक सुंदर मेहतरानी लड़की के साथ घटी थी,जिसे एक दिन कुछ नौजवानों ने बहुत परेशान किया था। वह खाली समय में घिरनी बनाकर बेचती थी। उस समय मैंने सोचकर कहानी का: विषय  नहीं चुना था किन्तु अनायास ही मेरी काल-चेतना बोल उठी थी।

 

आरती : आपकी रचनाएँ सदैव शोषितों,उपेक्षितों के पार्श्व में खड़ी उनकी संगिनी, उनकी साक्षी बनी नज़र आती है, जबकि आप जमींदार परिवार से सम्बद्ध हैं?

 

मधुकरजी : जमींदार से अगर तुम्हारा अर्थ ड्योढ़ीवाले रक्तपायी मालिकों से है तो वैसा मेरा परिवार नहीं था। मेरा परिवार सुखी-सम्पन्न किसान परिवार था जहाँ किसी चीज़ का अभाव नहीं था लेकिन मेहनतकशों, श्रमिकों को भाई-बंधुओं की तरह देखा जाता था। मैं अपने हलवाहा और चरवाहा में से जो बुजुर्ग थे, उन्हें चचा कहा करता था। एक बार रविवार के दिन पिताजी ने सात वर्ष की उम्र में मुझे गाय चरानेवाले चरवाहे के साथ गोचारण के लिए भेज दिया था, जिसे लेकर जमींदार-पुत्री मेरी माँ और किसान पुत्र मेरे पिता के बीच महाभारत युद्ध होते होते बचा था और पिताजी का उस समय का अमर वाक्य ‘ आगे जिंदगी में मेरा बच्चा समझ सकेगा कि मेहनत की मजबूरी क्या है?’ जो मैं 84 वर्ष का होने के बाद भी नहीं भूल सका हूँ। इसलिए मेरी रचना हमेशा शोषितों के लिए ,उनके न्याय के लिए आवाज़ उठाती है।

 

आरती : नई कहानी का आरंभ आप कब से मानते हैं? उसकी शुरुआत और उसकी प्रकृति पर कुछ प्रकाश डालें।

 

मधुकरजी : नई कहानी वस्तुत: 54-55 में मार्कण्डेय और कमलेश्वर की सम्मिलित पुस्तक ‘पान फूल’ से हुई जिनकी कहानियाँ हैदराबाद से बदरी बिशारद पित्ती के द्वारा संपादित पित्ती पत्रिका से हुई। 55-56 से इलाहाबाद से प्रकाशन शुरू हुआ । मार्कण्डेय, कमलेश्वर के साथ शेखर जोशी , अमरकान्त, मैं मधुकर गंगाधर, शशि प्रभाशास्त्री ,हृदयेश, मेहरुन्निसा परवेज, निर्मल वर्मा, शिव प्रसाद सिंह आदि भैरव प्रसाद गुप्त के सम्पादन में प्रकट हुए। बाद में कई वर्षों से लिखकर थक चुके और पुनज्जीवित हुए मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, फणीश्वरनाथ रेणु ,धर्मवीर भारती आदि आ जुड़े और जिस तरह चुनाव के समय बूथ लूटकर कुछ बटमार विधायक और सांसद ही नहीं मंत्री वगैरह बन जाते हैं , उसी तरह नई कहानी में भी कुछ बटमारों ने दल बनाकर कब्ज़ा जमाना शुरू किया और कुछ अहिंसाप्रिय कथाकार किनारे बैठ बटमारों के लिए सिर्फ तालियाँ बजाते रहे तो इन ताली बजानेवालों में एक मैं भी हूँ।

 

आरती : पूर्ववर्ती रचनाकारों की लेखनी से ग्रहण करते, कुछ  असंतुष्ट होते हुए ही जागरूक लेखक अपनी लेखनी पैनी करता है। क्या आपने भी ऐसा अनुभव किया है?

 

मधुकरजी : कोई भी सृजनात्मक रचनाकार यह जानता ज़रूर है कि इर्द-गिर्द क्या लिखा जा रहा है, लेकिन ईमानदारी से अपने भीतर बहती हुई रचनात्मक धारा को ही प्रकट करता है , उसे किसी दूसरे से प्रभाव लेने की ज़रूरत नहीं होती। मैं दुनिया की सभी भाषाओं के इतिहास को देखने का अनुरोध करते हुए यह कहना चाहूँगा कि हिंदी में 1954 से 59 तक पाँच वर्ष के अंदर जीतने कहानीकार जितने विविध रूपों में रचनाओं  के साथ प्रकट हुए , वह विश्व की किसी भाषा में कभी ऐसा नहीं हुआ। इसके मूल स्रोत को अगर खोजना चाहे तो उस खोज का महाग्रंथ हो जाएगा।—- इतने कारण हैं।

 

आरती : फणीश्वरनाथ रेणु से आपके पारिवारिक संबंध रहे किंतु उनके साहित्य को लेकर आपका मतभेद रहा है — क्या यह सच है?

 

मधुकरजी : रेणु जी के बारे में मेरे अंतरंग संबंध ‘दरख्तों के साए’ पुस्तक में है। मैं उन्हें भैया कहता , वे भी मुझे अनुजवत मानते। उनकी तीसरी पत्नी लतिकाजी को मैं रेणुजी से भी ज़्यादा पूज्य और श्रद्धेय मानता था , क्योंकि मेरी नज़र में रेणुजी कुछ रिपोर्ताज और कुछ छोटी-मोटी कहानियाँ दैनिक और साप्ताहिक पत्रों में लिखकर छुटभैये लेखक की क़तार में थे। बक़ौल भैया रेणु टीबी के मरीज थे, बाल्टी बाल्टी ख़ून थूकते थे। उस ख़ून लगे थूक को पोंछनेवाली नर्स लतिका मुखर्जी टीबी के जर्जर मरीज़ रेणु की पत्नी बनी, उन्हें नई ज़िंदगी दी; अपने गहने गिरवी रखकर रेणु के पहले उपन्यास ‘मैला आँचल’ को छपवाया। इसलिए मैं उन्हें पूज्य मानता था। रेणुजी से जो म्रेरे व्यक्तिगत संबंध थे, इस संबंध में कुछ कहकर मैं उस संबंध को हल्का नहीं करना चाहता।हाँ, सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि पटना अस्पताल में जिस दिन रेणुजी ने अंतिम साँस ली, उसके कुछ घंटों पहले और लगातार पिछले कई दिनों से उनके सिराहने खड़ा होनेवाला मैं और सिर्फ मैं था, जिसकी हथेलियों को अपनी शीतल होती  हथेलियों में दबाकर रेणुजी ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से बुदबुदाते हुए कुछ शब्द जो कहे, वो मेरे — सिर्फ मेरे हैं।

जहाँ तक साहित्य का सवाल है, मैंने अमेरिकन , अंग्रेज़ी, रसियन, इटालियन, बंगला, उड़िया , मराठी, तमिल, मलयालम के साहित्य खासकर उपन्यासों को गहरे तक पढ़ा है। उस कसौटी पर रेणुजी जहाँ उतरते हैं, मैंने ईमानदारी से जहाँ उतरते हैं, मैंने ईमानदारी से उन्हें रखा है। मैं जातिवाद और क्षेत्रवाद पर विश्वास नहीं करता हूँ , इसलिए आप के प्रश्न का कि मैं रेणु विरोधी हूँ या नहीं , कोई उत्तर नहीं दूँगा। इसका उत्तर वे लोग दे सकते हैं जिन्होंने विश्वकवि विद्यापति को मैथिल बनाकर दरभंगा में सीमित करना चाहा, राष्ट्रकवि दिनकर को भूमिहार बनाकर सिमरिया घाट में क़ैद करना चाहा, रेणु को धानुक बनाकर अररिया ज़िला में बंदी बनाना चाहा। मेरी नज़रों में ये तीनों भारतीय मूल के हिंदी के कवि और लेखक हैं जिन्हें मैंने विश्वसाहित्य के  फ़लक पर मूल्यांकित किया है। अगर यह मेरी क्षुद्रता है तो अपनी इस क्षुद्रता पर मुझे गर्व है।

 

आरती : समाज आपको कहानीकार के रूप में जानता है जबकि आपने कविता के क्षेत्र में भी नए प्रतिमान स्थापित किए, इसका मूल कारण क्या हो सकता है?

 

मधुकरजी : दशरथ के चार बेटे थे। पूजा सिर्फ राम की ही क्यों होती है — बाकी को मेरे गंभीर पाठक जानते हैं। वही हालत मेरे चारों बेटों की है — पहला, कहानी, दूसरा उपन्यास, तीसरा नाटक , चौथा कविता । मीडिया संबंधी पुस्तकों को मेरी पाँचवी बेटी कहा जा सकता है। दुखद स्थिति यह है कि मैं लिखने में लिप्त रहा, इसके प्रचार-प्रसार में नहीं। इन सभी विधाओं में मैं सम्पूर्ण रूप से उपस्थित हूँ। मैं अगर सिर्फ कविता ही लिखता तब भी मैं साहित्य में वहीं होता, जहाँ आज हूँ। इसी तरह सारी विधाओं के बारे में मैं ही नहीं मेरे पाठक भी मुझसे कहते रहते हैं।

आरती : आपने दस कथा संग्रह, नौ उपन्यास, पाँच कविता संग्रह, तीन नाटक, सांस्कृतिक पुस्तक और रेडियो से संदर्भित कई पुस्तकें लिखीं । इतनी विविधता एक साथ अन्यत्र कम देखने को मिलती है । प्रत्येक विधा की रचनाएँ अपने आप में सशक्त है। अपने उपन्यासों पर कुछ रोशनी डालें ।

 

मधुकरजी : मेरे उपन्यास, जैसा कि जीवन भर मेरी आदत रही, कभी अपने को दोहराता नहीं हूँ। मेरे नौ उपन्यास क्रमश: तीन खंडों में रखे जा सकते हैं— पहला, गाँव और कृषि-चक्र पर निर्भर, संघर्ष करते ग्रामीणों, जीवित कोसी की धाराओं से जूझते मल्लाहों,तटवर्ती गाँवों के किसानों पर आधारित– ‘फिर से कहो’, ‘सुबह होने तक’, ‘सातवी बेटी’नामक उपन्यास। दूसरा, बसते नगर और महानगर की घुटन और बिखरेपन को रेखांकित करते तीन उपन्यास — ‘मोतियों वाले हाथ’, ‘यही सच है’ और गरम पहलुओं वाला मकान। तीसरा, राजनीति आधारित उत्तर भारतीय ग्रामों के परिवर्तन को भारतीय राजनीति के माध्यम से विश्व इतिहास और संस्कृति को जोड़ने वाले तीन उपन्यास, जो 1930 के नमक सत्याग्रह से 2014 के संसदीय चुनाव के पूर्व की भारतीय राजनीति को प्रस्तुत करते हैं। वे हैं– जयगाथा, उत्तरगाथा और ध्रुवांतर।

 

आरती : आपने आकाशवाणी को अपनी लंबी सेवाएँ दीं,प्रेस चलाया, पत्रिका निकाली, परिवार को सदैव उसके हिस्से का समय दिया। एक साथ इतना सबकुछ कैसे किया? उसके पहले से लेखन कार्य शुरू किया और अबतक निरंतर करते रहे और आपके किसी एक कार्य ने दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं किया। अपनी कार्य- पद्धति और समय विभाजन के बारे में कुछ बताएँ

 

मधुकरजी : इतने के अलावा भी कुछ काम थे जो मैंने किए, जैसे इश्कबाज़ी, लड़ाई-झगड़े, कवि सम्मेलनों में भाग लेना, हर रविवार को नियमित रूप से पत्नी के साथ बंगला फिल्म हॉल जाकर देखना। और मज़े की बात है कि  बेटी को पिता से जितना प्यार मिलना चाहिए ,मेरी बेटी को उससे कहीं अधिक मिला, पत्नी को जितना चाहिए था, उससे सौ गुना ज़्यादा दिया। प्रेम करनेवालों औए करनेवालियों को भी संतुष्ट रखा। दफ्तर में नाक और सिर उठाए रहा, प्रेस में मुनाफा कमाया, पत्रिका में गुणवत्ता बनाए रखा जिससे साहित्य जगत में उसे उच्च स्थान मिला। दोस्त-दुश्मन, कार्यक्षेत्र और लेखन — इन तमाम चीजों को देखते हुए मुझे लगता है कि ये सारे काम मैंने सफलतापूर्वक इसलिए किए क्योंकि मैं घड़ी की सूइयों के अनुसार चलता था, आज भी चलता हूँ और मैं जो भी काम करता हूँ, मैं उस समय तक सम्पूर्ण रूप से उसी काम के लिए जीता हूँ। बगल झाँकने की आदत मेरी कभी नहीं रही । डूबना और सम्पूर्ण समर्पण की कला माँ के दूध और बाप के प्यार ने मुझे दिया।

 

आरती : रेडियो लेखन से जुड़ा शोध प्रबंध ‘भारतीय प्रसारण : विविध आयाम ‘ आज आकाशवाणी के लिए शास्त्रीय ग्रंथ है। इस विषय का विचार कैसे आया?

 

मधुकरजी : मैंने जब नौकरी शुरू की तो मैं ‘पंचवर्षीय योजना ‘ का प्रोड्यूसर था, उस समय फणीश्वरनाथ रेणु  भी हिंदी वार्ता में एसिसटेंट प्रोड्यूसर थे। फिर मैं ग्रामीण कार्यक्रम, हिंदी वार्ता आदि का प्रोड्यूसर और उस समय बिहार के ग्रामीण क्षेत्र का कोना- कोना घूमा और कार्यक्रम प्रस्तुत किए। फिर साहित्यिक, राजनीतिक रूपक, नाटक भी लिखे। मैंने अमेरिकन ब्रॉडकास्टिंग सिस्टम ( ए बी सी)और ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन(बी बी सी) से संबन्धित विधाओं पर आधारित अंग्रेज़ी पुस्तकों का अध्ययन-मनन किया। उसी समय मैंने महसूस किया था कि हिंदी में भी ऐसा ग्रंथ होना चाहिए जिसे पढ़कर नए लोग रेडियो के लिए लिख सके और प्रस्तुत कर सके। चूँकि मैंने हर विषय और विधा पर काम किया था, इसलिए मुझे व्यावहारिक ज्ञान था। इस व्यावहारिक ज्ञान को मैंने पुस्तक रूप में लिखा और तत्कालीन विद्वानों से राय मशविरा कर इसे पीएच॰ डी की डिग्री के लिए विश्वविद्यालय में जमा कर दिया। इसके पहले किसी ने ब्रॉडकास्टिंग पर पीएच॰ डी करने की बात सोची भी नहीं थी। मेरे शोधप्रबंध का जब पर्सनल इंटरव्यू हुआ तो बी एच यू के हिंदी विभागाध्यक्ष ने बतौर विशेषज्ञ मुझसे पूछा, ” आपके शोध प्रबंध में कहीं फुटनोट या किसी विद्वान का उद्धरण नहीं है।” मैंने जवाब दिया, ” मैंने जो किया, जो लिखा वही यह शोधग्रंथ है। इसलिए मैंने इसमें किसी दूसरे का ज्ञान नहीं लिया है।” विशेषज्ञ महोदय हिंदी के विद्वान थे, प्रसारण के नहीं। अत: उन्होंने मुझे कॉफी के प्याले के साथ धन्यवाद और डिग्री देने का आश्वासन दिया। रेडियो में , बाद में मैं लोकसेवा आयोग द्वारा केंद्र निदेशक चुना गया और काफी वर्षों तक मैं निदेशालय में डायरेक्टर ऑफ प्रोग्राम, डाइरेक्टर ऑफ ई एस डी (विदेश प्रसारण सेवा) रहा लेकिन रेडियो के लिए लिखना और प्रसारण करना बंद नहीं किया। मैंने कुछ राष्ट्रीय स्तर के फ़ीचर और विदेश प्रसारण से बीबीसी के समानांतर दो घंटे का हिंदी कार्यक्रम प्रवासी भारतीयों के लिए स्वयं लिखकर और प्रस्तुत कर शुरू कराया था जो आज भी जीवित है। मैंने रेडियो में लोकल रेडियो का नमूना प्रस्तुत कर प्लानिंग कमीशन के सामने महानिदेशक के माध्यम से प्रस्तुत किया जैस्पर आधारित लोकल रेडियो और बाद में रूपांतरित होकर कम्यूनिटी रेडियो बना। कम्यूनिटी रेडियो का भी सम्पूर्ण रूप से 107॰4 नोएडा रेडियो के नाम से स्थापित कर नमूना पेश किया। इस तरह जिस तरह मैंने माँ के दूध का कर्ज़ झलारी चरित काव्य लिखकर अंशत: अदा करने की कोशिश की , उसी तरह आकाशवाणी के खाए नमक का मूल्य कई ग्रंथों तथा अनेक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत कर मूल्य चुकाने की कोशिश की।

 

आरती : चलते- चलते एक और प्रश्न । आप 1946 से अबतक विविध विषयों और नवीनतम व उपेक्षित सरोकारों को अपनी कविता में जगह देते रहे हैं। कविता की इस लंबी यात्रा को जाने बिना आज की बात अधूरी जान पड़ेगी । तो अपने कविता-संग्रहों के विषय में कुछ बताएँ।

 

मधुकरजी : आरती! एक बात तो कहना चाहूँगा। इतने लोगों ने मेरा साक्षात्कार लिया ,बातचीत की, लेकिन तुमने बातचीत के दौरान बहुत सी ऐसी बातें बताने पर अनायास और सहज रूप से प्रेरित  कर दिया जिसे अबतक किसी से नहीं कहा था। बेहद औपचारिक संवाद में उसकी गुंजाइश भी नहीं होती । यह संवाद अबतक का विशिष्ट संवाद है।

बहरहाल, कविता की बात करूँ तो पहला कविता संग्रह ‘आकाश-पाताल’ है। ‘नया समाज ‘ में गीतिनाट्य छपा था — 1953 में। दूसरा ‘1975’ नामक कविता संग्रह सन् 1976 में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में विश्व भर की हर महीने की महत्वपूर्ण घटनाओं पर आधारित कविताएँ हैं। मुझे लगा था कि इन महत्वपूर्ण घटनाओं पर भी कविताएँ होनी चाहिए, सो मैंने लिखी। जैसे ललित नारायण को बम से उड़ाना  उस समय बहुत बड़ी घटना थी। इसी तरह मास्को में अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन पहली बड़ी घटना थी।तुम इसे बारहमासा भी  कह सकती हो। 1976 में  ही  तीसरा कविता संग्रह प्रकाशित हुआ– ‘कविता की वापसी’ । यह संग्रह नकसलबाड़ी पर आधारित है जो 1968 में लिखी गई थी।

फिर एक लंबे अंतराल के बाद 2004 में चौथा कविता-संग्रह ‘बघनखा’ अवतरित हुआ। इस संग्रह में छह नई कविताएँ हैं,शेष ‘कविता की वापसी’ की कविताएँ हैं।

 

आरती : अपने संग्रह के लिए आपने ‘बघनखा’ शीर्षक ही क्यों चुना? कुछ और क्यों नहीं? मैं जानती हूँ कि आप बिना सोचे- समझे ,बस ऐसे ही कोई काम नहीं करते ,इसलिए इस शीर्षक को लेकर मेरी जिज्ञासा बढ़ गई है।

 

मधुकरजी : (हँस पड़ते हैं) बघनखा दुनिया का सबसे छोटा हथियार है, जिससे शिवाजी ने साइस्ता ख़ान का पेट फाड़ा था। बघनखा लगा कर मैं सोए हुए लोगों का मुँह नोचकर उन्हें जगाना चाहता हूँ। इसमें संकलित कविता में राष्ट्रपति भवन की तुलना मैंने तवायफ के कोठे से की है।

 

आरती : ‘झलारी चरित काव्य ‘ में आपने गाँव को ही नायकत्व प्रदान कर दिया है।

 

मधुकर : हाँ! मैंने पहले भी कहा था कि गाँव मेरे अंदर सजीव है। मैं अपने गाँव से जुड़े हर तत्व और तथ्य को शिद्दत से महसूस कर सकता हूँ — आज भी। आज भी मैं बचपन में देखे गाय के नाद को याद करना चाहूँ तो वह संपूर्णता के साथ उतना ही सजीव हो उठता है ,जितना मेरे आस-पास मौजूद वातावरण। यहाँ तक कि मैं उस नाद में से आती गंध को भी पूरी तरह महसूस कर सकता हूँ। इसी तरह बाकी चीज़ें भी।

आरती : हाल में ही प्रकाशित आपकी नई काव्य-कृति ‘गूँगी चीखें’ पचास के दशक से लेकर आज की नवोदित पीढ़ी को भी लीक से हटकर सोचने पर विवश कर रही है। और आपने पहले कहा था कि रात के 12 बजे से लेकर 3 बजे तक ये कविताएँ आपके दिलों-दिमाग में  अपने आप उतरती जाती थीं, मानो पात्रों ने अपनी अंतर्व्यथा कहने के लिए  स्वयं  आपको माध्यम बनाया । कुल चार महीनों में  यह संग्रह तैयार हो गया। इस विषय में क्या कुछ साझा करना चाहेंगे?

 

मधुकर : राम को मैंने कूटनीतिज्ञ आर्य राजा के रूप में देखा है जिसने किष्किंधा की वानर संस्कृति,  लंका की राक्षस संस्कृति को नष्ट कर आर्य संस्कृति का विस्तार किया और महाभारत में कर्ण द्वारा यह सवाल पूछा गया है कि जब युधिष्टिर ,भीम,अर्जुन पांडु के पुत्र थे ही नहीं थे तो हस्तिनापुर पर उनका अधिकार कैसा और महाभारत का औचित्य क्या था? — इस पुस्तक में रामायण और महाभारतयुगीन उन स्त्रियों की व्यथाओं को शब्द दिए गए हैं जिन्हें पुरुषों की शक्ति के समक्ष दबा दिया गया था।

 

आरती : अपने और अपनी कृतियों के बारे में इतना विस्तार से बताने के लिए आभार । परवर्ती पीढ़ी से कुछ कहना चाहेंगे?

 

मधुकरजी : साहित्य की साधना करें, पुरस्कार और सम्मान पाने की होड़ में अपनी आत्मा की आवाज़ अनसुनी न करें, न्याय का साथ दें। मैं न अन्याय करता हूँ न होने देता हूँ। स्वाभिमानी मन से उपजा साहित्य ही सच्चा साहित्य होगा।

2015, परिंदे में प्रकाशित

इनसे मिलिए विविधता के समुच्चय डॉ. मधुकर गंगाधर

 

पिछले दिनों वरिष्ठ साहित्यकार मधुकर गंगाधर जी से लंबे संवाद का अवसर मिला। मधुकर गंगाधर आकाशवाणी के निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए। इससे पहले वे दो वर्षों तक बिहार सरकार के उद्योग विभाग में ‘कमर्शियल इंटेलिजेंस अफसर’ के रूप में कार्यरत रहे थे।श्यामलाल कॉलेज तथा एशियन स्कूल ऑफ फ़िल्म एंड टेलीविज़न में स्नातक छात्रों को प्रसारण कोर्स का अध्यापन, फ़िल्म सिटी, नोएडा में स्नातक-स्नातकोत्तर छात्रों के लिए प्रसारण कोर्स का अध्यापन, नोएडा रेडियो (कम्यूनिटी) 10.4 के संस्थापक- निदेशक पद-भार भी संभालते रहे। पत्रकारिता के क्षेत्र में ,’ चुननु-मुन्नू’, ‘नया’,’युगीन’ का संपादन और’ नूतन सवेरा’ के एक्रिडेटेड संवाददाता रहे।आपकी एक सौ कहानियाँ चार पुस्तकों में संकलित होने के कारण सुरक्षित रह गईं, क्योंकि केवल पत्रिकाओं में प्रकाशित कई उम्दा कहानियाँ पुराने पाठकों की स्मृति में ही शेष हैं। नौ उपन्यास, जिन्हें हाल में ही तीन खंडों में विभाजित कर संकलित किया गया है। छह कविता संग्रह ,जिनमें पिछले वर्ष प्रकाशित ‘गूँगी चीखें’ बहुचर्चित रही। पुराने कविता संग्रहों, जैसे बघनखा ,वर्ष 1975 व अन्य को ‘शस्त्रागार’ शीर्षक के तहत पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है। ‘झलारी चरित’ इनके गाँव झलारी को समर्पित काव्य संग्रह है। तीन संस्मरण, तीन नाटक, सांस्कृतिक विषय पर एक,प्रसारण संबंधी तीन पुस्तकें इनके द्वारा रचित है और दसवें उपन्यास पर काम ज़ारी है;’ढोडाय चरित मानस’ का हिन्दी अनुवाद किया। पचास के दशक से लिखते और पाठकों को झंझोरते रहने वाले 84 वर्षीय युवा मधुकर गंगाधर जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर कई आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हैं; रेडियो पर पीएच डी करने वाले मधुकर गंगाघर की कृतियों ने मुझे इस क़दर जिज्ञासु बना दिया कि उनसे समय लेकर उनके घर पहुँच गई। बैठक के सोफ़े पर आसीन मधुकरजी के निकट ही मैंने अपना आसान जमाया और फिर संवाद का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसकी छोटी झलक आपके सम्मुख ….

आरती : आपकी रचना -संपदा ने मेरे मन में कई जिज्ञासाएँ उत्पन्न कर दी हैं । मुझे लगता है , ये जिज्ञासाएँ सिर्फ मेरी नहीं, बल्कि आपके गंभीर पाठकों के मन में भी उठती रही होंगी ।

मधुकरजी : बताओ, क्या जानना चाहती हो? जो पूछोगी, सबके जवाब दूँगा, बस ऐसे प्रश्नों पर कुछ नहीं कहूँगा , जिससे किसी अन्य को किसी भी तरह की हानि या चोट पहुँचे।

आरती : बिहार की माटी ने कई विभूतियों को जन्म दिया; दिनकर, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु जैसे मूर्धन्य साहित्यकार भी गाँव की ही उपज थे। आप भी गाँव से संबद्ध हैं। अपने परिवार और गाँव के विषय में कुछ बताएँ

मधुकरजी : तुमने जिन साहित्यकारों के नाम लिए, वे तो महत्वपूर्ण हैं ही , मैं उस कोसी माटी की उपज हूँ और स्वयं को धन्य मानता हूँ कि उस माटी में वनफूल, केदारनाथ बंद्योपाध्याय, डॉ. लक्ष्मीनारायण सुधांशु, जनार्दन प्रसाद मिश्र जैसी विभूतियों ने जन्म लिया।
मेरा गाँव, जहाँ आज भी बिजली पूरी तरह नहीं पहुँची; खरंजा वाली सड़क दस वर्ष पहले यानि कि आज़ादी के लगभग पचास वर्ष बाद बनी। मेरा गाँव झलारी, थाना रुपौली, ज़िला पुर्णिया है जो बिहार का उत्तरी भाग है। पितृभाषा अंगिका और मातृभाषा मैथिली है। मेरी माँ दरभंगा की ठेठ मैथिली भाषी थी। मेरे ऊपर मैथिली और अंगिका साहित्यकारों का भी कम अधिकार नहीं है, क्योंकि अपनी सामर्थ्य के अनुसार मैंने इनमें भी लिखा है। और मेरे भीतर मेरा गाँव इस कदर बैठा है कि उसपर मैंने पूरा चरितकाव्य लिख डाला।

आरती : साहित्य के प्रति आपका रुझान कैसे हुआ ? आपने सबसे पहले किस विधा में लिखना शुरू किया और कब?

मधुकरजी : पाँच- छह वर्ष का हुआ तो पिताजी कहानियाँ सुनाने लगे। रामायण, महाभारत से लेकर ठगों की कहानियाँ भी। साहित्य के प्रति रुझान का आधार तो बचपन की उन कहानियों को ही माना जा सकता है।
शुरुआती लेखन की बात करूँ तो पहली कविता श्मशान पर लिखी ,तब आठवीं में पढ़ता था । उस समय पंत और दिनकर की प्रकृतिपरक कविताओं की ओर झुकाव अधिक था। 1946 में लिखा गीतिनाट्य लिखा जो उन्हीं दिनों ‘राष्ट्र संदेश’ नामक साप्ताहिक पत्र में छपा।नाटक लिखने की शुरुआत गाँव से की। 1950 में अकाल पड़ा तो ‘अकाल’ शीर्षक से नाटक लिखा और साथी युवकों को साथ लेकर मंचन भी किया जो बहुत सफल रहा। कई बार यह नाटक अलग -अलग जगहों पर खेला गया। पर्व-त्योहारों के अवसर पर अपने ही गाँव में प्रस्तुत किया। इसका उद्देश्य लोगों को इस समस्या से जूझते लोगों के प्रति संवेदनशील बनाना था, ताकि उन्हें अधिक से अधिक राहत पहुंचाया जा सके।

आरती : आप अपने लेखन में किन-किन साहित्यकारों की छाप महसूस करते हैं?

मधुकरजी :मेरे लेखन पर मनोहर पोथी से रामायण; प्रेमसागर से लेकर चंद्रकांता संतति से शुरू करें और 1950 तक जिस किसी ने भी हिंदी में लिखा और मैंने पढ़ा , उसका सार तत्व तो मैंने लिया ही। मेरी रचनाओं पर माँ के दूध और पिता की लोक कथाओं का असर है।इस संबंध में चार पंक्तियाँ सुनाना चाहता हूँ :

आरती : जी ज़रूर!

मधुकरजी : रात मैंने कंटीली झाड़ियों को रौंदते
गीली मिट्टी पर पैरों की छाप छोड़ते
सुबह तक उस बबूल के निकट पहुंचा था
कल जब सूर्योदय होगा तो लोग जानेंगे
कि मैंने रोशनी के लिए
उल्लुओं तक का दरवाज़ा खटखटाया था।

आरती : कहानी विधा को आपने कब अपनाया ?

मधुकरजी : जहाँ तक मुझे याद है, मैंने पहली कहानी 19 54-55 में लिखी। कहानी थी ‘घिरनी वाली’। यह महज कहानी नहीं, एक कड़ुवा यथार्थ था जो मेरी नज़रों से गुजरा और मेरी संवेदनाओं ने कहानी की शक्ल ले ली। यह घटना मैला सिर पर ढोनेवाली एक सुंदर मेहतरानी लड़की के साथ घटी थी,जिसे एक दिन कुछ नौजवानों ने बहुत परेशान किया था। वह खाली समय में घिरनी बनाकर बेचती थी। उस समय मैंने सोचकर कहानी का: विषय नहीं चुना था किन्तु अनायास ही मेरी काल-चेतना बोल उठी थी।

आरती : आपकी रचनाएँ सदैव शोषितों,उपेक्षितों के पार्श्व में खड़ी उनकी संगिनी, उनकी साक्षी बनी नज़र आती है, जबकि आप जमींदार परिवार से सम्बद्ध हैं?

मधुकरजी : जमींदार से अगर तुम्हारा अर्थ ड्योढ़ीवाले रक्तपायी मालिकों से है तो वैसा मेरा परिवार नहीं था। मेरा परिवार सुखी-सम्पन्न किसान परिवार था जहाँ किसी चीज़ का अभाव नहीं था लेकिन मेहनतकशों, श्रमिकों को भाई-बंधुओं की तरह देखा जाता था। मैं अपने हलवाहा और चरवाहा में से जो बुजुर्ग थे, उन्हें चचा कहा करता था। एक बार रविवार के दिन पिताजी ने सात वर्ष की उम्र में मुझे गाय चरानेवाले चरवाहे के साथ गोचारण के लिए भेज दिया था, जिसे लेकर जमींदार-पुत्री मेरी माँ और किसान पुत्र मेरे पिता के बीच महाभारत युद्ध होते होते बचा था और पिताजी का उस समय का अमर वाक्य ‘ आगे जिंदगी में मेरा बच्चा समझ सकेगा कि मेहनत की मजबूरी क्या है?’ जो मैं 84 वर्ष का होने के बाद भी नहीं भूल सका हूँ। इसलिए मेरी रचना हमेशा शोषितों के लिए ,उनके न्याय के लिए आवाज़ उठाती है।

आरती : नई कहानी का आरंभ आप कब से मानते हैं? उसकी शुरुआत और उसकी प्रकृति पर कुछ प्रकाश डालें।

मधुकरजी : नई कहानी वस्तुत: 54-55 में मार्कण्डेय और कमलेश्वर की सम्मिलित पुस्तक ‘पान फूल’ से हुई जिनकी कहानियाँ हैदराबाद से बदरी बिशारद पित्ती के द्वारा संपादित पित्ती पत्रिका से हुई। 55-56 से इलाहाबाद से प्रकाशन शुरू हुआ । मार्कण्डेय, कमलेश्वर के साथ शेखर जोशी , अमरकान्त, मैं मधुकर गंगाधर, शशि प्रभाशास्त्री ,हृदयेश, मेहरुन्निसा परवेज, निर्मल वर्मा, शिव प्रसाद सिंह आदि भैरव प्रसाद गुप्त के सम्पादन में प्रकट हुए। बाद में कई वर्षों से लिखकर थक चुके और पुनज्जीवित हुए मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, फणीश्वरनाथ रेणु ,धर्मवीर भारती आदि आ जुड़े और जिस तरह चुनाव के समय बूथ लूटकर कुछ बटमार विधायक और सांसद ही नहीं मंत्री वगैरह बन जाते हैं , उसी तरह नई कहानी में भी कुछ बटमारों ने दल बनाकर कब्ज़ा जमाना शुरू किया और कुछ अहिंसाप्रिय कथाकार किनारे बैठ बटमारों के लिए सिर्फ तालियाँ बजाते रहे तो इन ताली बजानेवालों में एक मैं भी हूँ।

आरती : पूर्ववर्ती रचनाकारों की लेखनी से ग्रहण करते, कुछ असंतुष्ट होते हुए ही जागरूक लेखक अपनी लेखनी पैनी करता है। क्या आपने भी ऐसा अनुभव किया है?

मधुकरजी : कोई भी सृजनात्मक रचनाकार यह जानता ज़रूर है कि इर्द-गिर्द क्या लिखा जा रहा है, लेकिन ईमानदारी से अपने भीतर बहती हुई रचनात्मक धारा को ही प्रकट करता है , उसे किसी दूसरे से प्रभाव लेने की ज़रूरत नहीं होती। मैं दुनिया की सभी भाषाओं के इतिहास को देखने का अनुरोध करते हुए यह कहना चाहूँगा कि हिंदी में 1954 से 59 तक पाँच वर्ष के अंदर जीतने कहानीकार जितने विविध रूपों में रचनाओं के साथ प्रकट हुए , वह विश्व की किसी भाषा में कभी ऐसा नहीं हुआ। इसके मूल स्रोत को अगर खोजना चाहे तो उस खोज का महाग्रंथ हो जाएगा।—- इतने कारण हैं।

आरती : फणीश्वरनाथ रेणु से आपके पारिवारिक संबंध रहे किंतु उनके साहित्य को लेकर आपका मतभेद रहा है — क्या यह सच है?

मधुकरजी : रेणु जी के बारे में मेरे अंतरंग संबंध ‘दरख्तों के साए’ पुस्तक में है। मैं उन्हें भैया कहता , वे भी मुझे अनुजवत मानते। उनकी तीसरी पत्नी लतिकाजी को मैं रेणुजी से भी ज़्यादा पूज्य और श्रद्धेय मानता था , क्योंकि मेरी नज़र में रेणुजी कुछ रिपोर्ताज और कुछ छोटी-मोटी कहानियाँ दैनिक और साप्ताहिक पत्रों में लिखकर छुटभैये लेखक की क़तार में थे। बक़ौल भैया रेणु टीबी के मरीज थे, बाल्टी बाल्टी ख़ून थूकते थे। उस ख़ून लगे थूक को पोंछनेवाली नर्स लतिका मुखर्जी टीबी के जर्जर मरीज़ रेणु की पत्नी बनी, उन्हें नई ज़िंदगी दी; अपने गहने गिरवी रखकर रेणु के पहले उपन्यास ‘मैला आँचल’ को छपवाया। इसलिए मैं उन्हें पूज्य मानता था। रेणुजी से जो म्रेरे व्यक्तिगत संबंध थे, इस संबंध में कुछ कहकर मैं उस संबंध को हल्का नहीं करना चाहता।हाँ, सिर्फ इतना कहना चाहूँगा कि पटना अस्पताल में जिस दिन रेणुजी ने अंतिम साँस ली, उसके कुछ घंटों पहले और लगातार पिछले कई दिनों से उनके सिराहने खड़ा होनेवाला मैं और सिर्फ मैं था, जिसकी हथेलियों को अपनी शीतल होती हथेलियों में दबाकर रेणुजी ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से बुदबुदाते हुए कुछ शब्द जो कहे, वो मेरे — सिर्फ मेरे हैं।
जहाँ तक साहित्य का सवाल है, मैंने अमेरिकन , अंग्रेज़ी, रसियन, इटालियन, बंगला, उड़िया , मराठी, तमिल, मलयालम के साहित्य खासकर उपन्यासों को गहरे तक पढ़ा है। उस कसौटी पर रेणुजी जहाँ उतरते हैं, मैंने ईमानदारी से जहाँ उतरते हैं, मैंने ईमानदारी से उन्हें रखा है। मैं जातिवाद और क्षेत्रवाद पर विश्वास नहीं करता हूँ , इसलिए आप के प्रश्न का कि मैं रेणु विरोधी हूँ या नहीं , कोई उत्तर नहीं दूँगा। इसका उत्तर वे लोग दे सकते हैं जिन्होंने विश्वकवि विद्यापति को मैथिल बनाकर दरभंगा में सीमित करना चाहा, राष्ट्रकवि दिनकर को भूमिहार बनाकर सिमरिया घाट में क़ैद करना चाहा, रेणु को धानुक बनाकर अररिया ज़िला में बंदी बनाना चाहा। मेरी नज़रों में ये तीनों भारतीय मूल के हिंदी के कवि और लेखक हैं जिन्हें मैंने विश्वसाहित्य के फ़लक पर मूल्यांकित किया है। अगर यह मेरी क्षुद्रता है तो अपनी इस क्षुद्रता पर मुझे गर्व है।

आरती : समाज आपको कहानीकार के रूप में जानता है जबकि आपने कविता के क्षेत्र में भी नए प्रतिमान स्थापित किए, इसका मूल कारण क्या हो सकता है?

मधुकरजी : दशरथ के चार बेटे थे। पूजा सिर्फ राम की ही क्यों होती है — बाकी को मेरे गंभीर पाठक जानते हैं। वही हालत मेरे चारों बेटों की है — पहला, कहानी, दूसरा उपन्यास, तीसरा नाटक , चौथा कविता । मीडिया संबंधी पुस्तकों को मेरी पाँचवी बेटी कहा जा सकता है। दुखद स्थिति यह है कि मैं लिखने में लिप्त रहा, इसके प्रचार-प्रसार में नहीं। इन सभी विधाओं में मैं सम्पूर्ण रूप से उपस्थित हूँ। मैं अगर सिर्फ कविता ही लिखता तब भी मैं साहित्य में वहीं होता, जहाँ आज हूँ। इसी तरह सारी विधाओं के बारे में मैं ही नहीं मेरे पाठक भी मुझसे कहते रहते हैं।
आरती : आपने दस कथा संग्रह, नौ उपन्यास, पाँच कविता संग्रह, तीन नाटक, सांस्कृतिक पुस्तक और रेडियो से संदर्भित कई पुस्तकें लिखीं । इतनी विविधता एक साथ अन्यत्र कम देखने को मिलती है । प्रत्येक विधा की रचनाएँ अपने आप में सशक्त है। अपने उपन्यासों पर कुछ रोशनी डालें ।

मधुकरजी : मेरे उपन्यास, जैसा कि जीवन भर मेरी आदत रही, कभी अपने को दोहराता नहीं हूँ। मेरे नौ उपन्यास क्रमश: तीन खंडों में रखे जा सकते हैं— पहला, गाँव और कृषि-चक्र पर निर्भर, संघर्ष करते ग्रामीणों, जीवित कोसी की धाराओं से जूझते मल्लाहों,तटवर्ती गाँवों के किसानों पर आधारित– ‘फिर से कहो’, ‘सुबह होने तक’, ‘सातवी बेटी’नामक उपन्यास। दूसरा, बसते नगर और महानगर की घुटन और बिखरेपन को रेखांकित करते तीन उपन्यास — ‘मोतियों वाले हाथ’, ‘यही सच है’ और गरम पहलुओं वाला मकान। तीसरा, राजनीति आधारित उत्तर भारतीय ग्रामों के परिवर्तन को भारतीय राजनीति के माध्यम से विश्व इतिहास और संस्कृति को जोड़ने वाले तीन उपन्यास, जो 1930 के नमक सत्याग्रह से 2014 के संसदीय चुनाव के पूर्व की भारतीय राजनीति को प्रस्तुत करते हैं। वे हैं– जयगाथा, उत्तरगाथा और ध्रुवांतर।

आरती : आपने आकाशवाणी को अपनी लंबी सेवाएँ दीं,प्रेस चलाया, पत्रिका निकाली, परिवार को सदैव उसके हिस्से का समय दिया। एक साथ इतना सबकुछ कैसे किया? उसके पहले से लेखन कार्य शुरू किया और अबतक निरंतर करते रहे और आपके किसी एक कार्य ने दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं किया। अपनी कार्य- पद्धति और समय विभाजन के बारे में कुछ बताएँ

मधुकरजी : इतने के अलावा भी कुछ काम थे जो मैंने किए, जैसे इश्कबाज़ी, लड़ाई-झगड़े, कवि सम्मेलनों में भाग लेना, हर रविवार को नियमित रूप से पत्नी के साथ बंगला फिल्म हॉल जाकर देखना। और मज़े की बात है कि बेटी को पिता से जितना प्यार मिलना चाहिए ,मेरी बेटी को उससे कहीं अधिक मिला, पत्नी को जितना चाहिए था, उससे सौ गुना ज़्यादा दिया। प्रेम करनेवालों औए करनेवालियों को भी संतुष्ट रखा। दफ्तर में नाक और सिर उठाए रहा, प्रेस में मुनाफा कमाया, पत्रिका में गुणवत्ता बनाए रखा जिससे साहित्य जगत में उसे उच्च स्थान मिला। दोस्त-दुश्मन, कार्यक्षेत्र और लेखन — इन तमाम चीजों को देखते हुए मुझे लगता है कि ये सारे काम मैंने सफलतापूर्वक इसलिए किए क्योंकि मैं घड़ी की सूइयों के अनुसार चलता था, आज भी चलता हूँ और मैं जो भी काम करता हूँ, मैं उस समय तक सम्पूर्ण रूप से उसी काम के लिए जीता हूँ। बगल झाँकने की आदत मेरी कभी नहीं रही । डूबना और सम्पूर्ण समर्पण की कला माँ के दूध और बाप के प्यार ने मुझे दिया।

आरती : रेडियो लेखन से जुड़ा शोध प्रबंध ‘भारतीय प्रसारण : विविध आयाम ‘ आज आकाशवाणी के लिए शास्त्रीय ग्रंथ है। इस विषय का विचार कैसे आया?

मधुकरजी : मैंने जब नौकरी शुरू की तो मैं ‘पंचवर्षीय योजना ‘ का प्रोड्यूसर था, उस समय फणीश्वरनाथ रेणु भी हिंदी वार्ता में एसिसटेंट प्रोड्यूसर थे। फिर मैं ग्रामीण कार्यक्रम, हिंदी वार्ता आदि का प्रोड्यूसर और उस समय बिहार के ग्रामीण क्षेत्र का कोना- कोना घूमा और कार्यक्रम प्रस्तुत किए। फिर साहित्यिक, राजनीतिक रूपक, नाटक भी लिखे। मैंने अमेरिकन ब्रॉडकास्टिंग सिस्टम ( ए बी सी)और ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन(बी बी सी) से संबन्धित विधाओं पर आधारित अंग्रेज़ी पुस्तकों का अध्ययन-मनन किया। उसी समय मैंने महसूस किया था कि हिंदी में भी ऐसा ग्रंथ होना चाहिए जिसे पढ़कर नए लोग रेडियो के लिए लिख सके और प्रस्तुत कर सके। चूँकि मैंने हर विषय और विधा पर काम किया था, इसलिए मुझे व्यावहारिक ज्ञान था। इस व्यावहारिक ज्ञान को मैंने पुस्तक रूप में लिखा और तत्कालीन विद्वानों से राय मशविरा कर इसे पीएच॰ डी की डिग्री के लिए विश्वविद्यालय में जमा कर दिया। इसके पहले किसी ने ब्रॉडकास्टिंग पर पीएच॰ डी करने की बात सोची भी नहीं थी। मेरे शोधप्रबंध का जब पर्सनल इंटरव्यू हुआ तो बी एच यू के हिंदी विभागाध्यक्ष ने बतौर विशेषज्ञ मुझसे पूछा, ” आपके शोध प्रबंध में कहीं फुटनोट या किसी विद्वान का उद्धरण नहीं है।” मैंने जवाब दिया, ” मैंने जो किया, जो लिखा वही यह शोधग्रंथ है। इसलिए मैंने इसमें किसी दूसरे का ज्ञान नहीं लिया है।” विशेषज्ञ महोदय हिंदी के विद्वान थे, प्रसारण के नहीं। अत: उन्होंने मुझे कॉफी के प्याले के साथ धन्यवाद और डिग्री देने का आश्वासन दिया। रेडियो में , बाद में मैं लोकसेवा आयोग द्वारा केंद्र निदेशक चुना गया और काफी वर्षों तक मैं निदेशालय में डायरेक्टर ऑफ प्रोग्राम, डाइरेक्टर ऑफ ई एस डी (विदेश प्रसारण सेवा) रहा लेकिन रेडियो के लिए लिखना और प्रसारण करना बंद नहीं किया। मैंने कुछ राष्ट्रीय स्तर के फ़ीचर और विदेश प्रसारण से बीबीसी के समानांतर दो घंटे का हिंदी कार्यक्रम प्रवासी भारतीयों के लिए स्वयं लिखकर और प्रस्तुत कर शुरू कराया था जो आज भी जीवित है। मैंने रेडियो में लोकल रेडियो का नमूना प्रस्तुत कर प्लानिंग कमीशन के सामने महानिदेशक के माध्यम से प्रस्तुत किया जैस्पर आधारित लोकल रेडियो और बाद में रूपांतरित होकर कम्यूनिटी रेडियो बना। कम्यूनिटी रेडियो का भी सम्पूर्ण रूप से 107॰4 नोएडा रेडियो के नाम से स्थापित कर नमूना पेश किया। इस तरह जिस तरह मैंने माँ के दूध का कर्ज़ झलारी चरित काव्य लिखकर अंशत: अदा करने की कोशिश की , उसी तरह आकाशवाणी के खाए नमक का मूल्य कई ग्रंथों तथा अनेक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत कर मूल्य चुकाने की कोशिश की।

आरती : चलते- चलते एक और प्रश्न । आप 1946 से अबतक विविध विषयों और नवीनतम व उपेक्षित सरोकारों को अपनी कविता में जगह देते रहे हैं। कविता की इस लंबी यात्रा को जाने बिना आज की बात अधूरी जान पड़ेगी । तो अपने कविता-संग्रहों के विषय में कुछ बताएँ।

मधुकरजी : आरती! एक बात तो कहना चाहूँगा। इतने लोगों ने मेरा साक्षात्कार लिया ,बातचीत की, लेकिन तुमने बातचीत के दौरान बहुत सी ऐसी बातें बताने पर अनायास और सहज रूप से प्रेरित कर दिया जिसे अबतक किसी से नहीं कहा था। बेहद औपचारिक संवाद में उसकी गुंजाइश भी नहीं होती । यह संवाद अबतक का विशिष्ट संवाद है।
बहरहाल, कविता की बात करूँ तो पहला कविता संग्रह ‘आकाश-पाताल’ है। ‘नया समाज ‘ में गीतिनाट्य छपा था — 1953 में। दूसरा ‘1975’ नामक कविता संग्रह सन् 1976 में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में विश्व भर की हर महीने की महत्वपूर्ण घटनाओं पर आधारित कविताएँ हैं। मुझे लगा था कि इन महत्वपूर्ण घटनाओं पर भी कविताएँ होनी चाहिए, सो मैंने लिखी। जैसे ललित नारायण को बम से उड़ाना उस समय बहुत बड़ी घटना थी। इसी तरह मास्को में अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन पहली बड़ी घटना थी।तुम इसे बारहमासा भी कह सकती हो। 1976 में ही तीसरा कविता संग्रह प्रकाशित हुआ– ‘कविता की वापसी’ । यह संग्रह नकसलबाड़ी पर आधारित है जो 1968 में लिखी गई थी।
फिर एक लंबे अंतराल के बाद 2004 में चौथा कविता-संग्रह ‘बघनखा’ अवतरित हुआ। इस संग्रह में छह नई कविताएँ हैं,शेष ‘कविता की वापसी’ की कविताएँ हैं।

आरती : अपने संग्रह के लिए आपने ‘बघनखा’ शीर्षक ही क्यों चुना? कुछ और क्यों नहीं? मैं जानती हूँ कि आप बिना सोचे- समझे ,बस ऐसे ही कोई काम नहीं करते ,इसलिए इस शीर्षक को लेकर मेरी जिज्ञासा बढ़ गई है।

मधुकरजी : (हँस पड़ते हैं) बघनखा दुनिया का सबसे छोटा हथियार है, जिससे शिवाजी ने साइस्ता ख़ान का पेट फाड़ा था। बघनखा लगा कर मैं सोए हुए लोगों का मुँह नोचकर उन्हें जगाना चाहता हूँ। इसमें संकलित कविता में राष्ट्रपति भवन की तुलना मैंने तवायफ के कोठे से की है।

आरती : ‘झलारी चरित काव्य ‘ में आपने गाँव को ही नायकत्व प्रदान कर दिया है।

मधुकर : हाँ! मैंने पहले भी कहा था कि गाँव मेरे अंदर सजीव है। मैं अपने गाँव से जुड़े हर तत्व और तथ्य को शिद्दत से महसूस कर सकता हूँ — आज भी। आज भी मैं बचपन में देखे गाय के नाद को याद करना चाहूँ तो वह संपूर्णता के साथ उतना ही सजीव हो उठता है ,जितना मेरे आस-पास मौजूद वातावरण। यहाँ तक कि मैं उस नाद में से आती गंध को भी पूरी तरह महसूस कर सकता हूँ। इसी तरह बाकी चीज़ें भी।
आरती : हाल में ही प्रकाशित आपकी नई काव्य-कृति ‘गूँगी चीखें’ पचास के दशक से लेकर आज की नवोदित पीढ़ी को भी लीक से हटकर सोचने पर विवश कर रही है। और आपने पहले कहा था कि रात के 12 बजे से लेकर 3 बजे तक ये कविताएँ आपके दिलों-दिमाग में अपने आप उतरती जाती थीं, मानो पात्रों ने अपनी अंतर्व्यथा कहने के लिए स्वयं आपको माध्यम बनाया । कुल चार महीनों में यह संग्रह तैयार हो गया। इस विषय में क्या कुछ साझा करना चाहेंगे?

मधुकर : राम को मैंने कूटनीतिज्ञ आर्य राजा के रूप में देखा है जिसने किष्किंधा की वानर संस्कृति, लंका की राक्षस संस्कृति को नष्ट कर आर्य संस्कृति का विस्तार किया और महाभारत में कर्ण द्वारा यह सवाल पूछा गया है कि जब युधिष्टिर ,भीम,अर्जुन पांडु के पुत्र थे ही नहीं थे तो हस्तिनापुर पर उनका अधिकार कैसा और महाभारत का औचित्य क्या था? — इस पुस्तक में रामायण और महाभारतयुगीन उन स्त्रियों की व्यथाओं को शब्द दिए गए हैं जिन्हें पुरुषों की शक्ति के समक्ष दबा दिया गया था।

आरती : अपने और अपनी कृतियों के बारे में इतना विस्तार से बताने के लिए आभार । परवर्ती पीढ़ी से कुछ कहना चाहेंगे?

मधुकरजी : साहित्य की साधना करें, पुरस्कार और सम्मान पाने की होड़ में अपनी आत्मा की आवाज़ अनसुनी न करें, न्याय का साथ दें। मैं न अन्याय करता हूँ न होने देता हूँ। स्वाभिमानी मन से उपजा साहित्य ही सच्चा साहित्य होगा।

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‘परिंदे’ 2016 में प्रकाशित